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Thursday, April 23, 2009

न उड़ा यूं ठोकरों से मेरी ख़ाक-ऐ-कब्र....







ख़ुशी इस बात से हुई कि पिछले दिनों चंडीगढ़ प्रशासन ने सेक्टर 19 में बनी उस पुरानी बिल्डिंग का हुलिया बदलकर उसे चंडीगढ़ का नक्शा बनाने वाले आर्किटेक्ट ली कार्बुजिए के नाम पर रख दिया और उस महान नक्शा नवीस की डिजाइन की हुई चीज़ें सजाकर रख दी हैं। इसी बिल्डिंग में कार्बुजिए ने मेज-कुर्सी लगाकर चंडीगढ़ के नक्शे की पहली आड़ी-तिरछी लाइनें खिंची थी।
ऐसी लाईनें खींचने से भी पहले कार्बुजिए ने इस बिल्डिंग का नक्शा बनाया और शिवालिक की पहाड़ियों तले बसने वाले इस शहर की पहली बिल्डिंग बनायी। एक मंजिला इस भवन में कई साल कई तरह के सरकारी दफ्तर चलते रहने के बाद इसे अब जाकर कार्बुजिए के नाम किया गया है. इसमें वह सब सामान जमा किया गया है जो कार्बुजिए ने डिजाइन किया. इसमें कुर्सियां-मेज से लेकर शहर के हर मेनहोल पर रखे ढक्कन तक को रखा गया है.
शुक्र है, प्रशासन को शहर के साठ साल के इतिहास को सँभालने की सुध आ गयी है। वह भी शायद तब जब अखबारों में ऐसी खबरें छपी कि चंडीगढ़ के किसी गट्टर से चोरी हुआ मेनहोल का ढक्कन लन्दन में आठ लाख का नीलाम हुआ। तीस किलोग्राम शुद्ध लोहे का बने ढक्कन कि चोरी कि रिपोर्ट तक प्रशासन ने कभी दर्ज नहीं कराई थी। वैसे कला के पारखी कबाडियों के जरिये शहर के आधे से ज्यादा मेनहोल के ढक्कन ठिकाने लगा चुके हैं। आठ लाख रूपये में मेनहोल का ढक्कन नीलाम होने के खबर छपते ही प्रशासन ने ली कार्बुजिए सेंटर का उदघाटन कर दिया। खैर इस से इस बिल्डिंग का भला हो गया जो कितने सालों से खस्ता हाल पड़ी थी और गिरने और कगार पर आन पहुंची थी।
शहर बसने और कुछ निशानियों में से एक इस बिल्डिंग के बारे में मैंने कुछ लोगों से बात और पाया कि जंगलों के बीच शहर की पहली बिल्डिंग के लिए उस जगह का चुनाव क्यों किया गया जो आज का सेक्टर 19 है।
असल में चंडीगढ़ बसने से पहले यहाँ एक छोटा सा पड़ाव था जहाँ पंजाब के रोपड़ से सड़क उन दिनों के मेन शहर कालका जाती थी। इस सड़क पर तीन बड़े पड़ाव थे। पहला आज के सेक्टर 22 में सिमटकर रह गयी छोटी सी सब्जी मार्केट जो बजवाडा के नाम से जानी जाती थी। आज भी पुराने लोग इस पूरे इलाके को ही बजवाडा के नाम से जानते हैं।
दूसरा पड़ाव सेक्टर 19 में नगला नाम का गाँव था। जिसकी हद आज के सेक्टर 17 में स्थित बस अड्डे तक फैली हुई थी। बस अड्डे में लगा बड़ा सा पीपल का पेड़ उस गाँव के बड़े कुँए के पास लगा था। कुँआ तो नहीं रहा, अलबता पीपल अभी है, पता नहीं कब तक रहेगा। नगला गावं सेक्टर 19 में एक कनाल का प्लाट भर रह गया है। जहाँ आज भी बाहर लगा बोर्ड देखा जा सकता है जिसपर लिखा हुआ है "प्राचीन नगला"। अब यहाँ एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। (गेट वाला फोटो देखें)
तीसरा बड़ा पड़ाव मनीमाजरा इलाके में पीपलीवाला अड्डा था जो आज के पीपलीवाला टाऊन के घरों के नीचे कहीं दफन है। अब बात करते हैं, सेक्टर 19 में ही ली कार्बुजिए की पहली बिल्डिंग बनाने के ख्याल की बात। असल में शाम को जो बस रोपड़ से चलकर कालका जाती थी वह पहले बजवाडा, फिर नगला और फिर मनीमाजरा रूकती थी। चंडीगढ़ प्रोजेक्ट में लगी टीम दिनभर यहाँ जंगलों में काम करती थी और शाम को कालका चली जाती थी जो उन दिनों शिमला से पहले का सबसे बड़ा बाज़ार भी था। चंडीगढ़ बसाने वाली टीम से जुड़े कुछ लोग बताते हैं की किस तरह दिनभर के काम के बाद लोग बजवाडा के बाज़ार से जरूरत का सामन, खासकर फल-सब्जियां खरीदते थे और रोपड़ से कालका जाने वाली बस पकड़कर चले जाते थे। सो, यही जगह सबसे सही थी।इसी बिल्डिंग में शहर का पहला अस्पताल भी चला. जंगल में काम करने वालों को जंगली कुत्तों और बंदरों के काटने के कारण रेबीज़ हो जाने का खतरा रहता था. ऐसे लोगों के लिए कसौली में बसे सेंट्रल सीरम इंस्टीट्युट-सीआरआई- से वेक्सिन आती थी. बताते हैं कि शाम को कालका जाने वाली बस के साथ ही अगले दिन आने वाली वेक्सिन का आर्डर भी भेज दिया जाता था. और अगले दिन उतनी ही वेक्सिन आ जाती थी, क्योंकि जंगल में फ्रिज तो थे नहीं वेक्सिन रखने के लिए. सो, कसौली से आने वाली पहली बस से ही वेक्सिन आ जाती थी और लोग उससे पहले ही खड़े होते थे लाइन बनाकर पेट में सुए लगवाने के लिए. मैंने भी बचपन में पड़ोसियों के कुत्ते की मेहरबानी से इसी बिल्डिंग में चलने वाले एंटी-रेबीज़ क्लीनिक में सुए लगवाते हुए चीखें मारी हुई हैं. सो, यह भी एक कारण था सेक्टर 19 में प्रोजेक्ट की पहली बिल्डिंग और ऑफिस बनाने का. बाद में इस बिल्डिंग में जंगलात महकमे का दफ्तर भी बना जो आज भी है।
इस बिल्डिंग में आप शहर के बनने के दिनों का इतिहास देख सकते हैं. प्रशासन ने शहर के "हेरिटेज" को संभालने की सरकारी कोशिश की है. सरकारी इसलिए कि पंजाब युनिवेर्सिटी और कुछ और सरकारी महकमों के कबाड़ में पड़ी पुरानी कुर्सियां तो उठा लाये, लेकिन शहर कि असल नींव को बर्बाद कर दिया।
इस बिल्डिंग और इस सामान से भी पुरानी और "हेरिटेज" तो वह सड़क है जिसकी निशानियाँ आज भी कुछ सेक्टरों में बिखरी पड़ी है. उन्हें संभालना तो दूर, कई जगहों पर तो उसे उखाड़ दिया गया है. इस बिल्डिंग को सहेजने के साथ-साथ "ओल्ड रोपड़ रोड" के हिस्सों को भी धरोहर बना लेते तो शहर उसे निशानियाँ बच जाती. वैसे मनीमाजरा के लोग अब भी एक हिस्से को ओल्ड रोपड़ रोड कहते हैं और घर का पता भी मकान नम्बर फलां, ओल्ड रोपड़ रोड बताते हैं।
नहीं जानने वालों के लिए बता दूं कि बजवाडा से अरोमा होटल की और जाते हुए जो सौ मीटर का पत्थरीला रास्ता स्कूल की दीवार के साथ साथ गुजरता है, वह ओल्ड रोपर रोड की ही बची हुई ख़ाक है. यह हिस्सा आगे जाकर सेक्टर 21 के एक पार्क के बीचोंबीच गुजरता है. उसके ठीक ऊपर अब घर बन गए है. (फोटो में सड़क के ठीक ऊपर घर बना दीखता है।इस घर के पीछे भी सड़क का हिस्सा है ) आगे जाकर यह सड़क फिर कुछ नज़र आती है और निरंकारी भवन के पीछे बने पार्क में दिखती है. दुःख मुझे इस बात का हुआ कि सेक्टर 21 बी में ही एक पार्क के बीच से गुजरती इस सड़क की निशानियों को पार्क में घास लगाने के लिए उखाड़ फेंका गया।
काश, इस शहर के बसने की इन बजवाडा, मनीमाजरा और नगला जैसी निशानियों को भी ठोकरों से उड़ाने से बचा लिया होता. मुझे लगता है इस सड़क के कई हिस्से यही कह रहे हैं- "न उड़ा यूं ठोकरों से मेरी ख़ाक-ऐ-कब्र जालिम, यही ले दे रह गयी है मेरे प्यार की निशानी".