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Wednesday, January 13, 2010

जाने कहाँ गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में...


रात को घर पहुंचा तो गाड़ी को घर तक ले जाने का रास्ता नहीं मिल सका. गली के मोड़ से लेकर घर तक के रास्ते में कम से कम चार जगह लोग आग जलाकर बैठे थे. कल लोहड़ी थी. रात को आग जलाकर बैठने और मूंगफली और रेवड़ियाँ खाने का त्यौहार. लेकिन सबके साथ मिलकर मनाने का त्यौहार. ऐसे नहीं एक मोहल्ले में चार जगह लोहड़ी जलाएं और पास-पड़ोस वालों को बुलाएं तक नहीं.
इस शहर में तो ऐसा नहीं था. कम से कम जैसा मुझे याद आता है, इस शहर में लोहड़ी एक ऐसा त्यौहार रहा है जिसे मनाने के लिए बाकायदा हर घर को बुलाया जाता था. यह उन दिनों को बात है जब शहर में कॉर्पोरेट कल्चर वाले लोग नहीं आये थे और न ही लोहड़ी मनाने के नाम पर एक-आध लकड़ी और पुराने गत्ते जलाकर वापस ऑफिस में जा बैठने की मजबूरियां इजाद हुई थी. चंडीगढ़ के सेक्टर 21 में रहा करते थे. उसी मोहल्ले में स्कूल था और एक चौगिरदे मोहल्ले में हम सब दोस्त और एक ही क्लास में पढने वाले बच्चे. लोहड़ी से एक महिना भर पहले ही हम सब लोहड़ी की तयारी शुरू कर देते थे. तैयारी का मतलब था कि जहाँ कहीं सूखी लकड़ी मिले उसे मोहल्ले के बीचोबीच बने पार्क में इक्कठा करना. हम सब हरमन सिद्धू के घर के सामने वाले बड़े पार्क से आम की लकड़ियाँ भी तोड़ लाते थे. हरमन का घर दूसरे मोहल्ले में था.
तैयारियों के अलावा एक और चीज़ थी जिसे प्लानिंग कहते हैं. नयी शरारतें खोजने का पेटेंट रखने वाले लखन सिंह के दिमाग की उपज उस लोहड़ी पर यह थी कि पैंट में जेब लम्बी करने का जुगाड़. लखन सिंह के साथ वाले घर में एक बुटिक था. घर था गोनी का. लखन ने गोनी को 'कोन्फीडेंस' में लेकर दरजी से बात करने की कोशिश की कि पैंट कि जेब काटकर उसे लम्बी करदे . दरजी ने वजह पूछी. लखन के पास जवाब तैयार था कि उसमें मूंगफलियाँ ज्यादा आती हैं. असल में लोहड़ी की रात को जब पार्क में सब मिलकर लोहड़ी जलाते थे, तो मूंगफली की बोरी पास ही राखी होती थी. उसमें सब को मूंगफलियाँ और रेवड़ियाँ बांटी जाती थी. लखन की प्लानिंग उस बोरी में ही सेंध लगाने की थी. अब मुझे याद नहीं कि उसकी यह स्कीम कामयाब हुई थी या नहीं.
लोहड़ी से जुडी हुई एक और याद जो मुहे है, वोह है, लोधी मांगने जाने का. बच्चे घर-घर जाकर लोहड़ी गाते थे और पैसे मांगते थे. घर के बाहर खड़े होकर 'सुंदर-मुंदरिये' लोकगीत गाने वाले बच्चों को पैसे मिलते थे. यह भी शायद लखन सिंह या नीरज शर्मा का आईडिया था कि लोहड़ी मांगने के लिए पिछले मोहल्ले में जाया जाये. चले गए. पांच-छः घरों से पैसे मिल चुके थे. सुझाव आया कि तीन-चार रुपये बहुत होते हैं, अब चला जाए, लेकिन सर्वसम्मति इस पर बनी कि बस एक आखिरी घर से और लोहड़ी ली जाए. हो गए शुरू. अचानक दरवाजा खुला और अन्दर से हमारी पंजाबी की टीचर बाहर निकल आयी. उन दिनों टीचर का बहुत खौफ होता था. पता नहीं क्यों? तो वह हुआ. टीचर को देखते ही भाग खड़े हुए, पैसे वहीँ गिर गए. मोड़ पर खड़े होकर देखते रहे कि टीचर घर के भीतर चली गयी या नहीं. उसके जाने से बाद हम में से कोई जाकर गेट के बाहर गिरे पैसे ढूँढकर लाया.
इसके बाद तय यह करना था कि पैसों का क्या किया जाए. इस पर सुझाव यह कि मेन रोड पारकर सेक्टर 22 में साईं स्वीट्स पर जाएँ और समोसे खाएं. वह पहला मौका था कि मैं पहली बार किसी रेस्टोरेंट में गया था. आज भी साईं स्वीट्स में चाय पीने के लिए जाता हूँ तो दुकान के दरवाजे से कुछ छोटे-छोटे बच्चे भागते हुए अन्दर आते हुए दिखते हैं. मिठाई वाले काउंटर तक भी नहीं पहुँचते...!! ऊपर समोसोंकी ट्रे रखी है. वेटर आकर चाय रखता है. मैं ऊपर देखता हूँ, वेटर पूछता है-साहब, लोहड़ी के लिए मिठाई पैक कर दूं?