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Sunday, November 20, 2011

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने...!!




बिग सिनेमा मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाने से पहले ही मेरे बेटे ने दो शर्तें रख दी. पहली यह कि डायमंड कटेगरी की टिकट लेनी पड़ेगी, यानी डेढ़ सौ रुपये वाली. और दूसरी यह कि फिल्म शुरू होने से पहले पॉपकार्न और इंटरवल में 'कॉम्बो-मील' दिलाना पड़ेगा. चमचमाते मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने वाली इस जेनेरेशन ने सेक्टर २२ में किरण सिनेमा के बारे में यह टिप्पणी की थी कि इतने छोटे हाल से अच्छा तो घर में लगा 42 इंच का एलसीडी ही है.
मुझे याद आया कि चंडीगढ़ में आने के पहले या दूसरे साल स्कूल की ओर से बच्चों की एक फिल्म दिखाने लेकर जाया गया था सेक्टर 22 के किरण सिनेमा में. फिल्म का नाम तो मुझे याद भी नहीं है, शायद किसी बच्चे को पता ही नहीं था. तीसरी क्लास की बात है या चौथी की. हाँ इतना याद है कि सेक्टर 21 के स्कूल से पैदल ही लाइन बना कर बच्चों को सिनेमा हल तक ले गए थे, इस सारे मामले में हंसने की बात यह थी कि हमारी क्लास टीचर का नाम भी किरण था ओर हम बच्चे उस को लेकर खुसरपुसर करते हुए हंस रहे थे. तब हमें नहीं पता था कि किरण सिनेमा शहर का पहला सिनेमा हाल था ओर कुल जमा चार सौ सीटों वाले इस सिनेमा हाल में फिल्म देखने के लिए लम्बी लम्बी लाईने लगती रही है. उसके बाद मैंने शायद दूसरी ओर आखरी फिल्म चांदनी देखी थी.
चंडीगढ़ में किरण के बाद बना था सेक्टर 17 का जगत सिनेमा जिसे अब तोड़कर एक नया मल्टीप्लेक्स बना दिया गया है. ओर सुना है इसके बाद सेक्टर 17 में ही बने नीलम सिनेमा हाल का भी येही हाल होने वाला है. सुपर-डुपर फिल्म 'शोले' जगत में ही लगी थी. जगत सिनेमा ऐसा था जिसमे सीढ़ियों पर लाल रंग का कारपेट लगा हुआ था ओर बड़े बड़े शीशे लगे थे. जगत सिनेमा एक वक़्त में अंग्रेजी फिल्मों के लिए मशहूर हो गया था. शायद 1997 के दिनों में. हमारे कोलेज के नए-नए दिन थे. अनुराग अब्लाश के साथ एक दो अंग्रेजी फिल्म भी देखी, साढ़े चार रुपये वाली बालकोनी में. उप्पर स्टाल तो शायद अढाई रूपये में ही मिल जाती थी. लोवेर स्टाल भी था डेढ़ रुपये में, लेकिन वो हमारे स्टेटस से थोडा नीचे था. तब इंटरवल में दस रुपये में 'गोल्ड स्पोट' ठंडा और पोपकोर्न का 'कॉम्बो' मिल जाया करता था. या बहुत हुआ तो अखबार में लिपटा हुआ ब्रेड-पकोड़ा.
इसके साथ लगता ही एक और सिनेमा हाल था 'केसी' . केसी की बिल्डिंग गोल थी. देखने में ही बड़ी रोचक थी. अब तो नहीं है. पता नहीं क्या बनेगा वहां. मैं जब सातवी या आठवी में था तब शायद 'बतरा' बना. तब तक वहां तक शहर बसा नहीं था. इसलिए वहां भूत होने की बाते भी सुनी थी, लेकिन फिर भी एक बार मैं और तिरलोक रात वाला शो देखने गए थे, फिल्म थी रामसे भाईओं की 'दरवाजा'. साड़ी बालकोनी में हम तीन जने थे,. इंटरवल में ही भाग आये डर के मारे .
उसके बाद मनीमाजरा वाला ढिल्लों सिनेमा भी बना और सेक्टर 32 में 'गन्दी' फिल्मों वाला निर्माण भी. एसडी कोलेज वालों की वहां काफी चलती थी टिकट लेने में. अब तो पिकाडली भी मल्टीप्लेक्स बन गया है, जगत और ढिल्लों भी. जीरकपुर में बिगसिनेमा है, इधर सेंतरा माल है और डीटी सिनेमा. आज कल के बच्चों के लिए कई तरह के कॉम्बो मील हैं और सबसे बड़ी बात, टिकट के लिए लाइन में लगने की जरूरत नहीं. ऑनलाइन बुकिंग हैं न.
फिर वही सवाल-पापा, आप के ज़माने में 3 डी मूवी हुआ करती थी क्या? मैंने याद किया-हाँ एक आई तो थी ऐसी फिल्म, क्या नाम था---हाँ, छोटा चेतन.

Wednesday, November 2, 2011

खुश रहे तू सदा, ये दुआ है मेरी..




अभी बचपन के दौर में है, शरीर में जोश है, इसलिए भीतर पनप चुकी बीमारी अभी उभर नहीं रही, लेकिन शर्तिया तौर पर जिस तरह शरह का मिजाज़ बदल रहा है, इसकी सेहत बहुत बिगड़ जायेगी. इलाज तो यह है कि अभी से परहेज शुरू कर दिया जाये.
यह कहा जा रहा है उस बच्चे शहर के बारे में जिसे सिटी ब्यूटीफुल कहा जाता है. बच्चा इसलिए कि कुछ समय पहले कोलकाता ने उसके तीन सौ साल और फिर हैदराबाद ने बसासत के पांच सौ साल पूरे किये हैं और बुढापे की और बढ़ चले हैं. लिहाजा पचास साल के इस चंडीगढ़ को तो टीनएजर ही कहा जायेगा. अब ऐसा शायद न रहे. जिस तरह शहर का चेहरा बदल रहा है, उससे लगता है कि शहर की सेहत भी बहुत अच्छी नहीं रहेगी.
शहर के पुराने बाशिंदे याद करते हैं कि शहर कितना हसीन और सेहतमंद था. अस्पताल और डिस्पेंसरियां खाली पड़ी रहती थी. कार्ड बनवाने के लिए लाइन में लगने जैसी बात सुनना मजाक लगता था. और डाक्टर भी ऐसे कि मर्ज़ के साथ मरीज़ के घर-भर में सदस्यों की बिमारी का इतिहास और गणित उँगलियों पर रखते थे.
चंडीगढ़ बसने के दिनों से सेक्टर 21 में रहने वाले तिरलोक ठुकराल मेरे साथ पढ़े हैं स्कूल में. इनसे बात कि तो बताया कि एक मामूली सी बीमारी के चलते उन्हें सेक्टर 22 के पोलीक्लिनिक जाना पड़ा. उन्हें यकीन नहीं हुआ कि यह वही हेल्थ सेंटर है जहाँ गिनकर दो या तीन डाक्टर हुआ करते थे और मरीजों की बाट जोहते थे. अब इतने डाक्टर और उनके कमरों के बाहर लगी मरीजों की भीड़.
यह एक घटना है यह बताने के लिए कि शहर में इलाज की सुविधाएं तो तेजी से बढ़ी हैं लेकिन मरीज जितनी तेजी से बढे हैं, उससे लगता है जैसे सारा शहर ही बीमार हो गया है.
पहले एक पीजीआई था, एक 'सोलां' और एक 'बाई' वाला हेल्थ सेंटर. डिस्पेंसरियां तो जैसे बच्चों के लुकाछिपी खेलने के लिए बनायी गयी थी. दूर-दराज़ से रेफर कराकर और घरेलु नुस्खों से ही ठीक हो जाने वाली सर्दी-जुकाम जैसी मामूली बीमारी लेकर पीजीआई में दाखिल होने का रिवाज भी नहीं था. वैसे तो मरीज़ 'बाई' वाले हेल्थ सेंटर से ही दवाएं ले लिया करते थे और सेक्टर 21 में सैनिक रेस्ट हाउस के पिछवाड़े में मलेरिया सेंटर में खून की जांच करा लिया करते थे. बहुत हुआ तो रेबीज़ से बचाव के लिए पेट में टीके लगवाने के लिए सेक्टर 19 की डिस्पेंसरी चले जाते थे.
मुझे पिछले दिनों सेक्टर 22 के पोलीक्लिनिक में जाना पड़ा. मुझे हैरानी हुयी कि इस 'हेरिटेज' भवन का मेन दरवाजा बंद करके इसे दूसरी तरफ से कर दिया गया है. मरीजों के लिए बनाए गए बड़े से हाल को अलुमिनियम की पार्टीशन से कमरों में बदल दिया गया है और चंडीगढ़ का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजिये के ट्रेड मार्क ईंटो की जाली वाले डिजाइन को बंद कर दिया गया है. चंडीगढ़ के माई-बाप कहलाने वाले अफसरों ने इतना दिमाग लगाने की जेहमत नहीं उठाई कि शहर के पहले हेल्थ सेंटर को बचने के लिए किसी और डिस्पेंसरी को बड़ा बना देते. साथ लगी फोटो पुराने मेन गेट के सामने से ली गयी है.
'सोलां' में दाखिल होना बड़ी बात हुआ करती थी. नतीजा, जिस पीजीआई के इमरजेंसी में पड़े मरीज़ को दाखिल कराने के लिए मिन्नतें करनी पड़ती हैं, उसी पीजीआई के पांचवी मंजिल पर बने जनरल वार्ड में मरीज़ कम और डाक्टर अधिक नज़र आते थे. अब हालात हैं कि पीजीआई में हर रोज़ पांच हज़ार मरीज़ आते हैं.
तब डाक्टर और मरीज़ का आपसी रिश्ता सा हुआ करता था. डाक्टर पूरे परिवार की बीमारियों की केस हिस्टरी रखते थे. शहर का माहौल ऐसा बदला है कि डाक्टर के साथ मरीज़ का रिश्ता और मरीज़ के बारे मं उसकी याददाश्त कार्ड पर लिखी केस हिस्ट्री तक ही सिमट कर रह गयी हैं. शायद येही कारण है कि इस शहर से फैमिली डाक्टर रखने की कांसेप्ट ख़तम होती जा रही है.
यहाँ चंडीगढ़ में परिवार कल्याण निदेशक रहे डाक्टर एमपी मिनोचा से इसी मुद्दे पर करीब दस साल पहले एक बार बात हुई थी. तब उनका कहना था था कि डाक्टर-पेशेंट का रिश्ता अभी और कमजोर होगा. आने वाले बीस-तीस सालों में ही शहर के लगभग आधे डाक्टरों का उनके मरीजों से अदालती झगडा चल रहा होगा. सत्तर के दशक में चंडीगढ़ आये मिनोचा अब रिटायर होकर दिल्ली जा चुके हैं उनका कहना था कि कभी साईकिल चलाने वाला शहर अब सैर भी नहीं करता. नतीजन, हाई ब्लड प्रेशर, डाइबिटीज और मोटापा बढ़ने लगा है. रही-सही कसर ट्रेफिक का धुआं पूरी कर रहा है.
खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि यह शहर जवानी में ही बूढ़ा न लगने लगे.

Saturday, July 23, 2011

बीती हुई ये घड़ियाँ फिर से ना गुजर जाएँ....




मेरे सात साल के बेटे ने आकर कहा-पापा आपके पास चालीस रूपये हैं? मैंने कहा-हाँ, तो उसका जवाब आया कि -फिर टाटा स्काई पर 'एक्टिव गेम्स' का पैक क्यों नहीं लगवा देते? मैं उसकी इस बात को पहले भी कई बार अनसुना कर चुका हूँ, क्योंकि डोरेमोन, मिस्टर बीन, बेन-टेन और ओगी एंड द कोक्रेच देखने में ही हर रोज़ तीन घंटे तक टीवी के आगे बैठे रहने से उसकी आई-साईट पर असर पड़ने के डर से मैं अन्दर ही अन्दर डरा रहता हूँ. और ये टाटा स्काई वाले भी बच्चों के लिए ही कम से कम पांच चैनल चला रहे हैं. पोगो, निक्क, डिस्नी, कार्टून नेटवर्क और पता नहीं कौन से.
मुझे याद आया उसकी उम्र में मेरे जैसे बच्चों के लिए कोई भी प्रोग्राम नहीं था सिवाय एक के. शनिवार की शाम पांच बजे जालंधर दूरदर्शन से एक कार्टून शो आता था 'जिम्मी एंड द मैजिक टॉर्च'. पर उसे देखने में यह दिक्कत थी कि जालंधर दूरदर्शन के सिग्नल मनमर्जी के मालिक थे. सिग्नल आया तो आया नहीं आया तो नहीं. शहर में गिनती के टेलीविज़न थे. 1982 में हुए एशिआड खेलों के बाद ही टेलिविज़न का दौर आया था. तब हमारे घर में टेलिविज़न नहीं था. मनीष के घर पर था, लेकिन उसे टेलिविज़न देखने का कोई ख़ास शौक़ नहीं था. टेलिविज़न देखने की बजाय वह फैंटम की कोमिक्स की अदला-बदली करने में लगा रहता. एक दो बार उसके घर में जिम्मी वाला शो देखा भी, पर उसकी गैर-मौजूदगी में अजनबी से बन कर बैठना पड़ा.
उन दिनों टेलिविज़न वालों का अपना अलग रुतबा था. उनकी दोस्ती थी क्योंकि सिग्नल नहीं आने के सब के दुख तो सांझे थे ही, टेलिविज़न के एंटेना के तार भी. उन दिनों टेलिविज़न का एंटेना करीब बीस फुट ऊँचा लगता था, यानी एंटेना अपने घर की छत पर और तारें पड़ोसियों की छतों के जंगलों से बंधी होती थी. इसलिए अच्छे पडोसी बने रहना भी मजबूरी थी. सिग्नल नहीं आने का 'कोमन डिस्कशन' था और वीएचऍफ़ से यूएचऍफ़ बूस्टर लगवाने की सलाहों का दौर. फिर टेलिविज़न खरीदने की योजना बना रहे पडोसी को 'क्राउन', 'टेक्सला', या लकड़ी के दरवाजे वाला 'ईसी टीवी' की खूबियाँ और कमियां बताने का दौर और यह भी कि टीवी खरीदने जाओ तो दुकानदार से पहले ही खोल लेना की आगे लगने वाली रंगीन स्क्रीन साथ में फ्री लेंगे.
एक और नज़ारा था जो पहले बुधवार की शाम, फिर, वीरवर की शाम और फिर रविवार की सुबह देखने को मिलता था और वह था एंटेना की दिशा बदलने का कार्यक्रम. असल में उन्ही दिनों कसौली में एक लो फ्रिक्वेंसी का ट्रांसमीटर शुरू हो गया था जो दिल्ली दूरदर्शन के प्रोग्राम रिले करता था. बुधवार की शाम जालंधर दूरदर्शन से चित्रहार आता था तो वीरवार को दिल्ली से फिल्म. उसके बाद रात को 'बुनियाद' और रविवार की सुबह 'स्टार-ट्रेक' जैसे प्रोग्राम. कुल मिलाकर हर टेलिविज़न वाले घर में रोज़ शाम को लगभग एक जैसा सीन होता था, एक मेम्बर छत पर चढ़कर एंटेना की दिशा जालंधर से बदलकर कसौली की और करता और दूसरा नीचे टेलिविज़न के आगे खड़ा होकर चिल्ला-चिल्लाकर "आ गया, नहीं, हाँ, हाँ आ गया, थोडा और घुमा" जैसे सन्देश प्रसारित कर रहा होता. जब तक हमारे घर में टेलिविज़न नहीं आया था, तब तक मैंने भी एक-आध बार हमारे पडोसी मोंटी गिल और पहली मंजिल पर रहने वाली मनीषा गुप्ता के बैंक मैनेजर पापा की मदद की थी. मनीषा को भी चित्रहार देखने का काफी शौक़ था और उसके चलते उसने कई बार मेरे सामने ही उसके पापा से डांट भी खाई, लेकिन सुबह स्कूल जाते समय उसने जबरदस्ती टीवी बंद कर दिए जाने के लिए सॉरी भी बोला. मैंने कहा-कोई बात नहीं. मेरे घर में टीवी आने के बाद मनीषा से हफ्ते में दो बार सॉरी सुनने के मौके भी जाते रहे.
ब्लैक एंड व्हाईट टीवी का ज़माना कब बीता, पता नहीं चला, मेरे घर में कब ब्लैक एंड व्हाईट 'क्राउन' से कलर टीवी 'अकाई' और फिर 'एलजी' आ गया, पता ही नहीं चला. पिछले दिनों सेक्टर 22 में डिस्पेंसरी के सामने उस कोने वाले घर की छत पर अभी तक भी बीस फुट के एंटेना के साथ डिश भी लगी देखी तो ध्यान दिया कि वहां से कसौली की पहाड़ियाँ साफ़ दिखती हैं. हाँ डिश की दिशा जरुर दिल्ली की और हो गयी है.
घर आकर बताया कि शहर में अभी तक भी ब्लैक एंड व्हाईट टीवी के एंटेना लगे हुए हैं तो बेटे ने पूछा-पापा, आपके ज़माने में टीवी लकड़ी के बने होते थे? मैंने कहा-हाँ. अगला सवाल-तो क्या रिमोट भी लकड़ी के थे?