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Monday, June 29, 2009

छोटी सी यह दुनिया, पहचाने रास्ते हैं तुम...



...कहीं तो मिलोगे.....बिलकुल यही हुआ मेरे साथ. बीते रविवार शिमला के इंदिरा गाँधी मेडिकल कालेज के 'बी ब्लाक' से निकलते ही मेरी नज़र पड़ी इस पर, जिसकी फोटो आप देख रहे हैं, इस पन्ने पर. यह मेनहोल का ढक्कन है और मेनहोल पर ही लगा हुआ है. लेकिन सही जगह पर नहीं है. यह खिसक कर अपनी असली जगह से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर आ गया गया है. असल में यह मेनहोल का यह ढक्कन चंडीगढ़ का है और चंडीगढ़ का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजिये ने शहर की गलियां डिजाइन तो की ही, शहर के मेनहोलों के ढक्कन भी डिजाइन किये. शहर में मेनहोलों पर अब भी यही ढक्कन नज़र आते हैं. यह ढक्कन शुद्ध लोहे का बना है और पूरे चालीस किलो का है. पुराने शहर में तो हैं ही, नए सेक्टरों में इनकी जगह सीमेंट के बने ढक्कन लगाए जा रहे हैं. जिसका कारण है कि अब शहर चलाने वाले अफसरों को मेनहोलों पर चालीस किलो के 'डिजाईनर' ढक्कन लगाने पैसे कि बर्बादी लगने लगी है. पुराने सेक्टरों में से चोरी हो गए लोहे के इन ढक्कनों की जगह अब सीमेंट के ढक्कन लगाए जा रहे हैं.
आप यह जानकार हैरान होंगे कि शहर की पहचान इन ढक्कनों की कीमत के बारे में दुनिया भर की खबर रखने वाले यहाँ के अफसरों को तब पता चला जब विदेश से खबर आयी कि शहर के मेनहोलों के ढक्कन चोरी हो कर विदेशों में आठ लाख रुपये में बिक रहे हैं. कला के पारखी और आर्किटेक्चर के दीवानों ने इन ढक्कनों को मुंह मांगी कीमतों पर खरीदा हैं. इसके बाद नींद से जागे अफसरों ने मेनहोलों से चोरी हुए दर्जनों ढक्कनों की चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई. बताया जा रहा है कि आठ लाख के मेनहोल के ढक्कन बिकने की खबर छपने के बाद एक ही रात में पूरे मोहल्ले के ढक्कन चोरी होने के मामले भी हो गए.
इन ढक्कनों के बारे में यह जानना भी रोचक होगा कि इन ढक्कनों पर चंडीगढ़ का पूरा नक्शा बना हुआ है. ढक्कन
के उपरी हिस्से में बीच से दायीं तरफ जाती दो लाईनें असल में सुखना झील को सींचने वाली बरसाती नदी है और इन लाईनों के खत्म होने पर बना त्रिकोण सुखना झील है. नीचे चकोर खाने शहर के सेक्टर हैं और उसी 'पैटर्न' पर बने हैं जिसपर शहर के सेक्टर बसे हुए हैं, उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर यानी ढक्कन पर बने नक्शे के हिसाब से ऊपर से पहले दायें और दायें से फिर बाएँ. कहा तो यह भी जाता था कि इन ढक्कनों को इस तरह डिजाइन किया गया था कि शहर के सारे मेनहोलों के ढक्कन एक ही दिशा यानी सीधे ही फिट हो सकते थे. हालांकि मुझे ऐसा देखने को नहीं मिला.
खैर, कार्बुजिये की इस सोच को शहर की पहचान बनाने वाले इन ढक्कनों को अब चंडीगढ़ प्रशासन ने 'मोमेंटो' करार दे दिया है. सुखना झील पर सरकारी दूकान से ढक्कन से 'रेप्लिका' ख़रीदा जा सकता है. ली कार्बुजिये की याद में बनाया गया कर्बुजिये सेंटर से भी चंडीगढ़ की निशानी के तौर पर लोग खरीद रहे हैं और दूसरे शहरों में लेकर जा रहे हैं. लेकिन फिर भी मुझे यह बात समझ नहीं आ रही कि चंडीगढ़ के मेनहोल का ढक्कन शिमला के अस्पताल में कैसे लग गया??

Saturday, June 13, 2009

लहरों की तरह यादें, दिल से टकराती हैं...


पता नहीं क्यों बोटनी, यानी वनस्पति विज्ञान (जिसे 'इन्टेलीजेंसिया इग्नोरेंस' से ग्रसित मुझ जैसे विद्यार्थी घास-पत्ता विज्ञान कहते थे) बहुत ही आसान विषय लगती रही है. चंडीगढ़ के सरकारी कालेज में 10+1 के मेरे सहपाठी जब बंद कमरे में फूलों के पत्ते तोड़-तोड़कर उनके नाम याद करने की जद्दो-जहद में लगे होते थे, मैं खिड़की से नज़र आने वाले प्रिंसीपल के दफ्तर के सामने के घास के मैदान में लम्बी हो गयी घास के साथ झूमते गेंदे के फूल देखता तो मुझे बाहर अक्टूबर महीने की नर्म होती धूप बाहर आने का इशारा करती. और जिस दिन मुझे पता चला कि कालेज में क्लास से उड़नछू हो जाने पार कोई ख़ास पाबंदी नहीं होती और बाद में मिन्नतें करके 'लेक्चर अटेंडेंस' पूरी करवाई जा सकती है तो मैंने क्लास से बाहर जाकर ही बोटनी पड़ने का फैसला कर लिया. क्लास बंक करने के पहले दिन मैं अपनी साईकिल उठाकर सीधा झील पर जा पहुँच.
सुखना झील. चंडीगढ़ की निशानी और मेरे भीतर कवि को जनम देने का आरोप इसी झील पर जाता है. कितने ही दिन मैंने कालेज से बाहर इस झील के पिछले किनारे पर सर्दियों की धुप में बैठे-बैठे, या झील के पीछे दूर तक फैले जंगल में पेड़ों का नाम रखते हुए और सन्नाटे में सूखे पड़े पत्तों पर चलने की आवाज़ सुनते हुए गुजार दिए, इसका हिसाब मेरे पास नहीं था, कालेज में बोटनी पढाने वाली लेक्चरर के पास था. दोस्तों का कहा भी सच हो गया कि मिन्नतें करने से लेक्चर अटेंडेंस पूरी हो जाती है. दो साल में सरकारी कालेज से सम्बन्ध छूट गया, लेकिन सुखना झील के साथ जुड़ा सम्बन्ध आज भी कायम है. झील के बीचों-बीच बने 'वाच टावर' के पास से पानी में उतरने वाली सीढियों पर साईकिल फेंक कर पानी के पास वाली आखिरी सीढ़ी पर 'बैठे रहें तस्व्वुरे जाना किये हुए' की तर्ज़ पर लहरें गिनते रहने के दिनों की यादें आज भी साथ हैं, लेकिन अफ़सोस हैं कि सुखना अब वैसी नहीं रही.
सुखना अब सूख रही है. पानी का स्तर कम होता जा रहा है. झील में पानी लाने वाली बरसाती नदी ' सुखना चो' के साथ आती जा रही मिट्टी ने झील को उथला कर दिया है. हालांकि प्रशासन सरकारी तौर पर की जाने वाली औपचारिकता पूरी करता है, लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा. हर साल की तरह इस बार भी लोग झील के सूख गए हिस्से से मिट्टी निकालने के अभियान 'श्रमदान' करने आये तो लेकिन गिनती भर के. सरकारी तौर पर एक आध मशीन झील के पिछले हिस्से में से सूखी गाद निकालने के काम में लगी हुई है, लेकिन लगता है, सुखना के साथ इस शहर के लोगों का मोह ख़त्म हो गया है. नयी आबादी, 'जेन नेक्स्ट' जवान हो गयी है, जिसके पास अभी वर्तमान है, यादें नहीं हैं.
मुझे याद आता है कैसे 1989 में सुखना झील को सूखने से बचाने के लिए 'श्रमदान अभियान' चलाया गया था. चंडीगढ़ प्रशासन के सलाहकार आईऐएस अधिकारी अशोक प्रधान ने इसे शुरू किया था. अप्रेल कि 18 तारीख को शुरू हुए अभियान में मिट्टी खोदकर टोकरे में भर कर बाहर फेंकने वालों में अशोक प्रधान सबसे आगे हुआ करते थे. और सरकारी अफसरों की तरह एक दिन नहीं, हर रोज, लगभग एक महीने तक. उनके चक्कर में प्रशासन के बाकी अफसरों को भी आना पड़ता था, चाहे मन मारकर ही. और जब लोगों ने देखा कि अफसरों से अनोपचारिक तरीके से मिलने का यह तरीका अच्छा है, तो वे भी आने लगे. लोगों का उत्साह देखकर प्रशासन से 'श्रमदान' को सालाना अभियान बना दिया गया. इस अभियान के लिए लोगों के जनून का आलम यह था कि चंडीगढ़ के हर सेक्टर से श्रमदान करने जाने वालों को सुबह साढ़े पांच बजे झील तक मुफ्त बस सेवा मिलती थी. बसों के आगे बोर्ड लगा हुआ हुआ होता था-'श्रमदान स्पेशल'. ऐसी ही एक बस के नीचे कुचले जाने से एक स्कूली बच्चे की मौत हो गयी थी जिसकी याद में एक ट्राफी शुरू कि गयी. और तो और ब्रिटिश एयरवेज़ ने बेहतरीन श्रमदानी के लिए मुफ्त हवाई यात्रा तक का इनाम रखा.
बाद में अफसर बदले, नए अफसरों को सुबह पांच बजे ही गर्मी लगने लगती है और एसी से बाहर नहीं निकल पाते. फिर ऐसी जगहों पर 'आम आदमी' से हाथ मिलाना और बात करना पड़ सकता है, सो इस अभियान में रूचि भी कम होने लगी. धीरे धीरे बिलकुल ही खतम जैसी हो गयी है.
असल में पिछले कुछ सालों के दौरान झील में पानी का स्तर पांच मीटर से घटकर सिर्फ दो मीटर रह गया है और इसका कुल क्षेत्रफल भी 230 हेक्टेयर से कम होकर 154 हेक्टेयर रह गया है. झील को सींचने वाली नदी में पौने दो सौ से अधिक टैंक बनाने के बावजूद झील में बहकर आने वाली गाद को रोकने के सरे प्रयास नाकाम हो गए हैं. सुना था कि प्रशासन ने एक बार 73 करोड़ रुपये की एक योजना बनायी थी झील को सूखने से बचाने के लिए, लेकिन अफसरशाही ने ही फाईलें रोक ली. ड्रेजिंग कारपोरशन ऑफ़ इंडिया से भी कहा, लेकिन हुआ कुछ नहीं.
अब हालत ऐसे हैं कि झील में पानी इतना कम हो गया है कि किश्तियाँ पानी में फंस जाती हैं, पानी कम हो गया है, लहरें नहीं उठती. यादें भी सूखती जा रही है. मेरी भी और देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु की भी, जिन्होंने इस शहर का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजिये को ख़ास तौर से चिट्ठी लिखकर शहर में एक झील बनाने की गुजारिश की थी. और इस झील के बारे में यह जान लेना भी रोचक होगा कि यह देश कि एकमात्र मानव निर्मित झील है जिसे 'नॅशनल वेटलैंड' का दर्जा हासिल है और हर साल अक्टूबर से मार्च तक सैकडों प्रवासी परिंदे यहाँ आते हैं. कहीं ऐसा न हो कि इन परिंदों का आना भी यादों में ही रह जाए.