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Thursday, March 26, 2009

गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता....















इन दिनों चंडीगढ़ में रंगों की बहार है. हर तरफ रंग भरी फिजाएं हैं. पेड़ों से रंग बरस रहे है। दुनिया का तो मुझे नहीं पता, लेकिन इतना जरूर है कि देश में दूसरा ऐसा कोई शहर नहीं है जहाँ गर्मी की शुरुआत इतनी रंगीन और हसीं होती हो। ऐसा लगता है जैसे बहुत सारे गुलमोहर एक साथ खिलखिलाकर हंस पड़े हों।
दरअसल, चंडीगढ़ में मार्च का महीना अपने आप में हसीं होता है। चंडीगढ़ में रहने वालों को तो नहीं पता, लेकिन बाहर से आने वाले देख सकते हैं कि शहर की सड़कें किस तरह रंगीन लबादे पहने खड़े पेड़ों के रंग में रंगी है। मार्च के महीने में शहर में दो तरह के बदलाव आते हैं। पहला, सडकों के किनारों पर लगे पेड़ों के इतने पत्ते झरते हैं कि सड़कें भर जाती हैं। इन पत्तों को उठाना एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
खैर, दूसरा बदलाव रोमानी होता है। पेड़ों के नए पत्ते निकलते हैं और एक ही महीने में कई रंग बदलते हैं। हल्के रंग के पत्ते निकलते हैं और कच्ची धूप के साथ रंग बदलते रहते हैं। हर रोज़ सडकों का रंग बदला हुआ मिलता है। रोज़ एक ही सड़क से गुजरकर जाने वाले भी हैरान होते हैं कि कल यहाँ किसी और रंग का पेड़ था, आज यह कहाँ से आ गया?
चंडीगढ़ में तीन किस्मों के पेड़ बहुत हैं। अमलतास, कचनार और गुलमोहर। गर्मियां आते ही यह तीनो चटक उठते हैं और महक देते हैं। सुखना झील के किनारे-किनारे करीब दो किलोमीटर लम्बे घास के मैदान के साथ-साथ चलती पगडण्डी पर लगे कचनार मार्च शुरू होते ही गुलाबी होने लगते हैं और अप्रैल आते-आते पत्तों की हरियाली छोड़कर पूरी तरह गुलाबी हो जाते हैं। इनकी छाया खत्म हो जाती है और सिर्फ रंग रह जाता है। हाँ, और एक रंग रह जाता है उसके तले। दुनिया की भाग-दौड़ से दूर अपनी ही दुनिया के रंग में खोये कई प्रेमी जोड़े आपको मिल जायेंगे इन कचनारों के नीचे बैठे। हालांकि कचनारों की छाया कम ही होती है, लेकिन प्यार में धूप का रंग भी गुलाबी लगता है।
शहर में अमलतास के पेड़ भी बहुतायत में हैं। शहर की पश्चिम से पूर्व की और जाने वाली सड़कों में से एक जन मार्ग के कई किलोमीटर लम्बे रास्ते पर अमलतास लगा है। गर्मी पड़ते ही अमलतास के पीले फूल ऐसे खिल उठते हैं कि रास्ता देखते ही बनता है। एक बात और; अमलतास के पेड़ों पर झींगुर रहते हैं जो सुबह होते ही बोलना शुरू करते हैं और शहर कि सुनसान दोपहरियों को रोमांटिक बना देते हैं। पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है कि उदय प्रकाश ने उनकी कहानी 'पीली छतरी वाली लड़की' किसी अमलतास के पेड़ के नीचे से गुजरते हुए ही सोची होगी।
अमलतास से ही मुझे करीब तीन दशक पुरानी बात याद आ गयी। बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ता था। तीसरी क्लास में। चंडीगढ़ के सेक्टर 21 ऐ में रहा करता था। मेरे घर के आगे की सड़क पर कचनार के पेड़ लगे थे और मैं कचनार की कलियों के गुलाबी रंग से अपना नाम दीवार पर लिखा करता था। अप्रैल के दिन थे। स्कूल की छुट्टियाँ थी। चंडीगढ़ में मेरा पहला क्लासमेट और दोस्त त्रिलोक ठकुराल था। वह सेक्टर 21 डी रहता था। उसके घर की कतार के आगे अमलतास के पेड़ लगे थे एक लाइन में। दूर तक। एक शाम मैं उसके घर चला गया और रात को वहीँ सो गया। हम दोनों ने फैसला किया कि हम घर के आगे वाले आँगन में गेट के पास बिस्तर लगा कर अमलतास के पेड़ के नीचे सोयेंगे। और अगली सुबह नींद खुलने पर मैंने पाया कि मैं जिस बिस्तर पर सो रहा था उसके ऊपर, मेरे चारों तरफ, पूरे आंगन में अमलतास के पीले रंग के फूल एक गोलाई में बिखरे थे। मैं बहुत देर तक यह सोच कर नहीं उठा कि मेरे उठने पर मेरे ऊपर और बिस्तर पर बिखरे पड़े फूल गिर जायेंगे। वह मेरे जीवन की सबसे सुंदर सुबह थी। अगर मुझे कोई एक अहसास फिर से महसूस करने का वरदान दे तो मैं वही सुबह मांगूंगा।
खैर, एक बात और बताना चाहूँगा चंडीगढ़ के बारे में। और वह यह कि चंडीगढ़ में इन तीन खूबसूरत रंगों के पेड़ों के अलावा तीन और अच्छे पेड़ों के झुरमुट हुआ करते थे जिनमें से एक शहर की भीड़ के तले कुचला गया। सेक्टर 29 में ट्रिब्यून चौक से लेकर सेक्टर 26 में ट्रांसपोर्ट लाईटों तक आम के हजारों पेड़ हैं। सरकारी हैं। इसे 'मैंगो ग्रूव' के नाम से जाना जाता है। इन्हें लगाने का कारण तो यह था कि पेड़ों के दक्षिण की तरफ के इंडस्ट्रियल एरिया की गर्मी और धुंआ इधर रिहायशी इलाके में न आये। दूसरा है, सेक्टर 22 ऐ में एक गोल सड़क के साथ साथ लगे नीम के बहुत से पेड़। बरसात के दिनों में निम्बोरी की महक दूर से ही महसूस की जा सकती है, बशर्ते, बचपन में आपने पककर मीठी हो गयी निम्बोरी खाकर देखी हों। एक और था ऐसा झुरमुट जो सेक्टर 20 से पूर्व दिशा में जाने वाली सड़क पर गोल्फ कोर्स तक लगाया गया था। वह था 'इमली अवेन्यु'। करीब पांच किलोमीटर लम्बे रास्ते पर इमली के सैकडों पेड़ थे। यह पेड़ उन दिनों लगाये गए थे जब शहर बस रहा था। और मकानों की कतारों की भूल-भुलैया में फंसने से पहले पहाड़ी हवा इन्हीं इमली के छोटे-छोटे पौधों के साथ लूका-मिची खेलती फिरती थी। पता नहीं बाद में इन्हें किसकी नज़र लगी। दीमक ने सैकडों पेड़ों को बर्बाद कर डाला। अब भी कुछेक पेड़ बचे हैं शहर के आबाद होने की यादें लिए। शुक्र है कचनार, अमलतास और गुलमोहर अभी बचे हैं और खिलखिला रहे हैं। शुक्र है इस हवा का भी जो गुलमोहर को हंसा रही है। मुझे किशोर कुमार का गाया एक गीत याद आ गया। 'गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसम-ऐ-गुल को हँसाना ही हमारा काम होता। '



Sunday, March 22, 2009

कुछ ख़ास है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...


अगर यह संयोग है, तो इससे बड़ा कोई संयोग नहीं हो सकता कि एक अत्याधुनिक शहर बसाने के लिए भवन निर्माण कला के जिस पश्चिमी मॉडल को 'लेटेस्ट' और 'साइंटिफिक' मना गया, उसकी जड़ें हजारों साल पुराने उस हिन्दू भवन निर्माण कला में हैं, जिसपर ज्योतिष विज्ञानं हावी है और पश्चिमी देश जिसे मान्यता तक नहीं दे रहे. अगर यह संयोग नहीं है, तो सच्चाई यह है कि चंडीगढ़ के आर्किटेक्चर की नींव ईंट-दर-ईंट वास्तुशास्त्र पर टिकी है. नहीं तो इतना बड़ा संयोग होना संभव ही नहीं है कि शहर के सारे कामयाब होटल सेक्टर 35 की एक ही लाइन में हों और कई अस्पताल होते हुए भी लोग सर्दी-जुकाम जैसी मामूली बीमारियों के इलाज के लिए पीजीआई में जमावडा लगाए रखें. और यह भी कि शहर का शमशान घात ठीक उसी दिशा में बन जाए जहाँ चन्दालिका वास मना जाता है. फिर यह भी संयोग मान लिया जाये कि वास्तुशास्त्र घर के जिस कोने में पानी रखने की सलाह देता है, शहर की वही दिशा झील बनाने के लिए उपयुक्त मान ली जाये. आज का चंडीगढ़ एक दिन में नहीं बना. पचास साल के दौरान शहर में एक-एक करके सेक्टर बने और उनमें आबादी बढ़ी. लेकिन आश्चर्य इस बात का होना चाहिए कि शहर का विकास वास्तुशास्त्र के बाहर नहीं जा पाया. लाख कोशिशें करने के बावजूद दक्षिणी सेक्टरों में जनसँख्या घनत्व रुक नहीं पा रहा. अगर इसका जवाब यह दिया जाए कि वास्तुशास्त्र के हिसाब से किसी घर या स्थान विशेष का दक्षिणी कोना रहने और सोने के लिए आरक्षित होता है तो शायद इस रहस्य को समझा जा सकता है कि क्यों दक्षिण मार्ग के पार बसे सेक्टरों में आबादी इतनी अधिक है और क्यों सेक्टर 48 और 49 के फ्लेट्स की मांग अधिक है. वास्तुशास्त्र ज्योतिषीय दृष्टि से किसी भी वस्तु को उसके तय स्थान और दिशा में स्थापित करने से सम्बंधित है. हालांकि बहुत से नक्शानवीस इस बात से सहमत नहीं होंगे कि फ्रांस जैसे देश के बाशिंदे कर्बुजिये को वास्तुशास्त्र का लेशमात्र भी ज्ञान था. लेकिन इतने बड़े शहर को बसाने के बनाया गया मास्टर प्लान अगर पूरी तरह वास्तुशास्त्र के नियमों पर फिट बैठे तो कम से कम इस बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि यह शहर विकास, तरक्की करने और फलने-फूलने के लिए ही बना है.वास्तुशास्त्र के नियम को अगर लें तो किसी भी नगर को बसाने के लिए एक ऐसे आयताकार भूखंड का चुनाव करना चाहिए जिसके उतरी दिशा में पहाड़ या पानी का बहाव हो. इसके बाद उस भूखंड के बीचोबीच एक दुसरे को काटती (कॉस्मिक क्रॉस) हुई दो लाईने खीचनी चाहिए जिनमे जिस एक लाइन भूखंड के आरपार होनी चाहिए. जिस स्थान पर यह लाईनें एक-दुसरे को काटती हों, वहां जन प्रतिनिधियों और प्रशासनिक स्तर के व्यक्तियों के कामकाज की जगह होनो चाहिए. चंडीगढ़ के बारे में यह नियम पूरे उतरते हैं. उत्तर दिशा में पहाड़ और पास में बहने वाली बरसाती नदी है. शहर के आरपार होता मध्यमार्ग और जन्मार्ग जिस स्थान पर एक दुसरे को काटते हैं, वहीँ सेक्टर 17 में एस्टेट ऑफिस, ड़ीसी ऑफिस और नगर निगम बना है. शास्त्रों में ऐसे स्थान पर ब्रह्मा जी का चार दरवाजों वाला मंदिर बनाए जाने की बात भी कही गयी है। वास्तु पुरुष मंडल सिद्धांत यह कहता है कि भूखंड या मकान के उत्तर में गृह स्वामी या उस व्यक्ति का आसन होना चाहिए जो महत्वपूर्ण और तर्कसंगत फैसले ले सके. अब इसे भी संयोग ही मान लिया जाए कि महत्वपूर्ण फैसले लेने की अथोरिटी हाईकोर्ट और विधान सभा इसी दिशा में बने हैं. बृहस्पति और केतु द्वारा नियंत्रित उत्तर-पूर्व दिशा को चिंतन और पानी रखने के लिए सर्वोत्तम माना गया है. इस दिशा में सुखना झील बनी हुई है. ज्योतिष विज्ञानं के मुताबिक बुध ग्रह शिक्षा और चिकित्सा को नियंत्रित करता है और भूखंड में उत्तर दिशा की प्रभावित करता है. वास्तुशास्त्र भी इस दिशा में विद्यालय या अस्पताल बनाने की सलाह देता है. इसी दिशा में बने यूनिवर्सिटी और पीजीआई अपने-अपने क्षेत्र में नाम रखते हैं और यह भी कि सेक्टर 32 में बड़ा अस्पताल और उसमें बराबर के डॉक्टर होने के बावजूद पीजीआई का रूतबा और ही है. यही गवर्नमेंट कालेजों के बारे कहा जा सकता है जो संयोगवश बुध के प्रभाव क्षेत्र में ही बने हुए हैं. सेक्टर 42 में लड़कियों के लिए और सेक्टर 46 में कामन गवर्नमेंट कालेज होने के बावजूद सेक्टर 11 के कालेजों में दाखिले के लिए मारामारी होती है. चंडीगढ़ के नक्शे के ऊपर अगर वास्तुपुरुष को रख दिया जाए तो कई आश्चर्यजनक तथ्य उभरकर सामने आते हैं. इससे पता चलता है कि सेक्टर 16 में बनाया गया रोजगार्डन ठीक उसी जगह पर आता है जहाँ वास्तुपुरुष के फेफडे हैं, यानी सांस लेने के लिए खुला स्थान. इसी तरह इस नक्शे के हिसाब से जहाँ सेक्टर 35 है, वह वास्तुपुरुष के पेट के हिस्से में और शायद यही कारण हैं कि इस सेक्टर में इतने होटल खुल गए हैं और सभी कामयाब हैं. वास्तुपुरुष यह भी बताता है कि चंडीगढ़ के आर्किटेक्चर के संभंध में यह भी तथ्यपरक है कि शहर का इंडस्ट्रियल एरिया दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थान पर है जो बृहस्पति नियंत्रित है और अग्नि है सम्बंधित है. और यह भी कि उत्तर-पश्चिम दिशा, जिसे शास्त्र गौशाला के लिए उपयुक्त मानते हैं, में ही धनास की वह मिल्क कालोनी बन गयी है जिसके लिए कोई प्लान लेआउट नहीं था. और इन सब तथ्यों के बावजूद अगर यह न मन जाए कि चंडीगढ़ का नक्शा वास्तुशास्त्र पर टिका हुआ नहीं है, तो फिर इस बात पर जोर दिया जा सकता है कि कर्बुजिये ने चंडीगढ़ का नक्शा बनाने के लिए छ फ़ुट दो इंच के हाथ उठाए हुए जिस काल्पनिक व्यक्ति के दायरे को इकाई माना है, वास्तुपुरुष का आकर भी ठीक उतना ही है.

Thursday, March 19, 2009

रौशनी है शराबखानों की........


शहर-ए-चरागाँ में अब ए दोस्त, रौशनी है शराबखानों की...
असल में अब यही हाल है इस शहर का जिसकी गलियाँ चमचमाते दुधिया रंग की रौशनी से लबरेज रहती थी। पचास साल पहले बसाए गए इस शहर की सड़कों के दोनों किनारों पर लगे तेज रौशनी देने वाले बल्बों ने कभी अँधेरा नहीं होने दिया।अँधेरा अब भी नहीं है, फर्क सिर्फ इतना है कि अब शहर भर में सड़कों के किनारों पर शराब के इतने ठेके और शराबनोशी के इतने ठिकाने खुल गए हैं कि उनकी रौशनी ने शहर भर कि सड़कों को रोशन कर रखा है।
यकीन करना पड़ेगा कि चंडीगढ़ शहर कि हद में मौजूद ठेकों, आहातों, बारों और पबों कि तादाद इतनी हो गयी है कि रकबे के हिसाब से ही आधे किलोमीटर पर एक ठेका है.सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि शहर चलाने वालों की इस दारु-दरियादिली का नतीजा है कि शहर के बाशिंदों के मुंह को नशा लग गया है. गुजिश्ता एक साल के भीतर ही शहर में बियर कि खपत में पांच सौ गुणा इजाफा हुआ है. इस लिहाज से चंडीगढ़ ने प्रति व्यक्ति बियर कि खपत के मामले में दिल्ली और मुंबई को भी पीछे छोड़ दिया है. आंकडेबाजी के नजरिये से शहर का हर आदमी 4.64 लीटर बियर गटक रहा है. दिल्ली में यह आंकड़ा 3.69 और मुंबई में 3.33 है. देश में प्रति व्यक्ति बियर की खपत 0.82 लीटर है।
सरकारी आंकडों का यह भी कहना है कि साल 2005-06 के दौरान शहर में बियर की करीब डेढ़ लाख पेटियां बिकी थी जो उससे अगले साल बढ़कर सवा सात लाख हो गयी थी. इस साल इस में और भी इजाफा हुआ है. बहरहाल, हालात यह हैं कि इस वक़्त शहर की म्युनिसिपल्टी के 144 किलोमीटर के दायरे में 192 ठेके, 100 आहाते, 90 बार, पांच क्लब जिनके पास दारु परोसने का लाइसेंस है, लोगों को नशे की ओर खींचे रखने के काम में जुटे हैं. इस लिहाज से शराब मिलने के कुल ठिकानों और शहर के रकबे को तकसीम किया जाए तो हर आधे किलोमीटर पर एक ठेका है. जाहिराना तौर पर इतने सारे ठेकों की रौशनी की जगमगाहट तो होगी ही।
कुछ तरक्कीयाफ्ता लोग इसकी तारीफ़ कर रहे हैं कि लाट साहब जनाब गवर्नर एसएफ रोड्रीग्ज़ ने शहर को गोवा बना दिया जहाँ फैशनेबल लोग अपनी फैमिली के साथ बैठकर शराब पीते हैं और औरतें-लड़कियां शर्म-लिहाज और फैशन के नाम पर रैड वाइन पीती हैं, जिसे पीने में कोई हर्ज़ नहीं समझा जाता. इधर, शहर में बड़ी तादाद ऐसे नौकरीपेशा लोगों की भी है जो सरकारी बाबूगिरी की तरह ही सामाजिक जिम्मेदारियां, नैतिकता और संस्कृति से बंधे हैं और रोज सुबह मंदिर जाने और रास्ते में खुल गए एक ठेके वाले को जहन्नुम में भी जगह नसीब नहीं होने की दरियाफ्त करते हुए दिन की शुरुआत करते हैं. इस वर्ग को लगता है कि लाट साहब को खुश करने के चक्कर में प्रशासन शहर को क्रिस्तानी बनाने पर तुला हुआ है. इन लोगों के लिए क्रिस्तानी और कारस्तानी पर्यायवाची बन गए हैं. सेक्टर 37 में रहने वाले जतिंदर शर्मा इनमें से एक हैं. इनका कहना है कि शहर भर में शराब के ठेके खुलने के बाद उन्हें ऐसा महसूस हो रहा है जैसे धर्म और आस्था से जुडे लोगों का इस शहर से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है. उनका सवाल है कि क्या इस तरह हर मोड़-नुक्कड़ पर ठेके खोलने से पहले नहीं पीने वालों की भी कोई राय ली गयी?
खैर, हालत यह है कि सेक्टर 17 और 22, दो ही सेक्टरों में ठेके-आहातों की तादाद 23 हो गयी है. इसी तरह मध्यमार्ग पर पंचकुला बॉर्डर तक दस और दक्षिण मार्ग पर आठ ठेके खुल गए हैं. प्रशासन ने कमर्शियल, इंडस्ट्रियल एरिया और झुग्गी-बस्तियों में ठेकों की तादाद तय करने वाला क्लाउस भी हटा लिया ताकि मजदूर और दिहाड़ीदार दिनभर खट्टें और शाम को हरारत उतारने और गम भुलाने तरह लिए ठेकों पर फूंक दें दिनभर की कमाई. और फिर बीमार होने पर सरकारी अस्पताल तो हैं ही. शराब पीने से गुर्दा-जिगर खराब होने पर इलाज का जिम्मा भी सरकार तरह सर. सेक्टर 15 का एक दुकानदार शराब पीकर लीवर खराब कर बैठा, अब दाखिल है फोर्टिस अस्पताल में. करीब 15 लाख रुपये लग गए है।
शराब पीने की बढती प्रवृति के कारण को शराब का आसानी से उपलब्ध होना भी माना जा रहा है. शाम को दफ्तर से निकलते ही सामने ठेका, मन मारकर निकल भी गए तो घर तक पहुँचते न पहुँचते दस ठेके-आहाते मिल जायेंगे. कहाँ तक बचेंगे शराब पीकर मर्द बनने को उकसाती अधनंगी लड़कियों के बैनर-पोस्टरों से. शराब छुडाने वाली संस्था अल्कोहलिक अनोनिमस से जुडे अनिल कौडा का मानना है कि शराब छोड़ने की इच्छा रखने वाले किसी भी व्यक्ति के प्रयासों को प्रशासन के ऐसे कदम से नुक्सान ही होगा. शराब पीने वाले की बजाय शराब छोड़ चुके व्यक्ति से पूछिए कि इतने ठेके खोलकर प्रशासन राजस्व के बीस करोड़ अधिक कमा भी लेगा लेकिन कितनी जिंदगियों में अँधेरा डाल देगा.

Saturday, March 14, 2009

फिज़ा के भेस में गिरते हैं पत्ते चिनारों के....


'कुछ तो तेरे प्यार के मौसम ही रास मुझे कम आये, और कुछ मेरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी'।
पत्थरों के इस शहर में कुछ ऐसी ही रोमानियत लाने के लिए शायद इस शहर के नक्शानवीस ने सड़कों के किनारों पर ऐसे दरख्त लगाने की ताकीद की थी जिनके पत्ते झरते हों....
पर यह सब उन लोगों के लिए था जो सूखकर झरे या झरकर सूखे पत्तों में भी खूबसूरती देख पाते, सुर्ख दोपहरियों में जब शहर के रास्ते सुनसान हो जाते हों तो इन्हीं सूखे चरमराते पत्तों पर चहलकदमी करते हुए गुजर गए खुशनुमा माहौल को याद करने का वक़्त निकाल पाते और याद कर पाते कि इन्हीं सूख कर झर गए पत्तों के साथ इस शहर में बहने वाली हवा सरगोशियाँ किया करती थी।बहरहाल, रोमानियत से बाहर आकर मेट्रोपोलिटन बनते जा रहे इस शहर के मौजूदा हालातों और बाकी दुनिया की तरह तेज रफ़्तार जिंदगी की अंधी दौड़ में शामिल हो चुके यहाँ के बाशिंदों की बात करें, तो शायद यहाँ की आधी आबादी भी इस बात से अनजान होगी कि इस शहर के हर गली-नुक्कड़ पर लगे आज के पेड़ों को रोपने से पहले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कर्बुजिये ने उस पौधे की जात-नस्ल को अच्छी तरह जाना था. और यह ख़ास तौर पर जाना था कि किसी मौसम में हवा का रुख और मिजाज़ क्या रहता है, और कौन से वे पेड़-पौधे हैं रात भर में ही पुरवाई से पच्छ्वा बन जाने वाली हवा कि इस रंग बदलने की फितरत को बर्दाश्त नहीं कर पाते और रातभर में ही मारे शर्म के झर जाते हैं। इस शहर की सड़कों के किनारे लगे पेड़ इस बात के गवाह हैं की शहर बसाने की सोच में यह भी शामिल किया गया था कि पेड़ों की किस्मों और हवा के रुख को टकराने नहीं दिया जाए। यही सोच 'ऑटो स्वीप' नाम की तकनीक बनकर उभरी। इस तकनीक में हवा चलने की दिशा और पेड़ों के पत्तों के गिरने के मौसम को 'सिंक्रोनाईज़' किया गया था ताकि बहती हुयी हवा खुद-ब-खुद झरे हुए पत्तों को बुहारकर सड़क के एक किनारे पर जमा कर दे और कुदरत इस दौलत को बेजान मोटर गाड़ियों के पहियों तले रौंदने से बचा ले।
जहाँ तक सवाल पत्तों के झरने का है तो यह जानना भी रोचक है कि शहर की सड़कों के किनारे लगे पेड़ों से हर साल सैकडों नहीं, हजारों ट्रालियां भरकर सूखे पत्ते उठाये जाते हैं. यह बात और है कि इन पत्तों को बुहारकर एक तरफ ढेर लगाने वाले सफाई कर्मचारी कई बार इनमें आग लगाकर चलते बनते हैं. इससे शहर है धुंआ और प्रढूषण तो फ़ैल ही रहा है, सांस की बीमारियों से परेशान लोगों के लिए भारी दिक्कत का सबब बनता है. हालांकि सरकारी तौर पर सूखे पत्तों को जलाने पर पूरी पाबंदी है, लेकिन कानून को नहीं मानने वालों की अपनी एक जमात है. वैसे लोगों को पूरा यकीन है की सड़कों के किनारे सड़ जाने वाले इन पत्तों में इतनी ताकत है कि इनसे निकलने वाले ईंधन की आग भट्टों को जलाए दे रही है।
जानकारी यह भी है कि इन पत्तों से फायदा उठा लेने की सोच रखने वाले कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने कुछ साल पहले यही जानकारी और सुझाव दिया था कि इन पत्तों को इकट्ठा करके ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. सुना गया कि यह सुझाव नगर निगम के अफसरों के पास भी भेजा गया था, लेकिन पत्तों के ईंधन से निकलने वाली आग अफसरों के दिमाग को रोशन नहीं कर सकी. नतीजा, पत्ते सड़कों पर ही पड़े रहते हैं और अधिक से अधिक ट्रालियों में भरकर शहर की हद से भहर फिंकवा दिए जाते हैं. जानकारी यह है कि पत्तों को ऊर्जा में बदलने की फाइल नगर निगम कई साल पहले ही बंद करवा चुका है. पत्तों से निजात पाने के जुगाड़ में इन्हें जला देने का खामियाजा सफाई कर्मचारी मुअतली या हर्जाना भरने के तौर पर चुकाते हैं. तकनीकी जानकारी रखने वाले लोगों का कहना है कि इन पत्तों को ईंधन में बदल कर कई सरकारी दफ्तरों में ईंधन के लिए इस्तेमाल हो रही एलपीजी की खपत में भारी कमी की जा सकती है. यह बता दें कि जिन पत्तों को बेकार समझकर इसके प्रोपोजल को ठिकाने लगा दिया गया है, उन्ही पत्तों से ईंधन बनाने वाले प्लांट गुजरात में इतने अधिक हैं कि वह हर साल करीब तीस हज़ार टन छिलका-पत्तों से बना ईंधन पंजाब के भट्टों को सप्लाई करते हैं. पर्यावरण से जुड़े लोगों ने कुछ समय पहले गैर परम्परागत ऊर्जा विकास विभाग से इन पत्तों से निकलने वाली ऊर्जा की जांच कराई थी. इनकी 'हीट वैल्यू' 3942 पायी गयी थी, जिसका मतलब है कि यह पत्ते अच्छा ईंधन साबित हो सकते हैं।
खैर, शहर में फिर पतझड़ आया है. पत्तों के ढेर लगे हैं. पर सुना है कि लाट साहब के दफ्तर से हुक्म है कि इन सूखे पत्तों को जलाया न जाए, दफ्न किया जाए और वह भी उन्हीं पेड़ों के नीचे गड्ढा खोदकर जहाँ से यह गिरे हैं.... 'न कहीं जनाजा उठता, न कहीं मजार होता॥'!!

Tuesday, March 10, 2009

'चांदनी शब् देखने को बस खुदा रह जायेगा'


'शहर को बरबाद कर दिया उसने मुनीर, शहर को बरबाद मेरे नाम पर उसने किया'
शायर ने ऐसा तरक्की के नाम पर बर्बाद कर दिए गए पर्यावरण के बारे में ही कहा होगा. दशकों पहले शहर में सड़कों के किनारे पौधे रोपने और दशकों बाद सड़कें चौड़ी करने के लिए काटे जा रहे पेड़ों को देखकर शहर के पुराने बाशिंदों का दर्द इन्ही लाईनों से झलकता है.
लोग याद करते हैं की किस तरह शिवालिक की तलहटी में बस रहे एक नए शहर के इक्का-दुक्का सेक्टरों की गलियों में हवा की सर्गोशिओं के अलावा अगर कुछ सुनता था तो चिड़ियों की चहचाहट और कभी-कभार सड़क बनाने के लिए ले जाई जा रही मशीनरी का शोर. सेक्टर 'सतारां' तब भी ऐसा ही सुंदर था, लेकिन ग्लैमरस नहीं. कंक्रीट की बिल्डिंगस तो खड़ी हो रही थी, लेकिन आज की तरह ठूंठ नहीं लगती थी. चिड़िया के मुंह वाले फुवारे से पानी नहीं गिरता था, लेकिन शहर में जड़ें बसा रहे लोग जीवन में रवानगी ला रहे थे. उत्तरी सेक्टर बस रहे थे. प्रोजेक्ट कैपिटल के तहत बन रही सेक्टरियेट, हाईकोर्ट और विधान सभा के डिजाइनर भवनों के साथ-साथ सेक्टर 16 और 22 में छोटी ईंटों के मकानों के अलावा अगर कुछ था तो साफ हवा, पानी और ढेर सारा आकाश.
'तब शहर सपना सा लगता था. कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि भीड़ जैसी कोई चीज़ इस शहर में कभी हो सकेगी या प्रदूषण भी कोई मुद्दा होगा'- ऐसा याद करते हैं सेक्टर 21 में रहने वाले एचएस बेदी. और सोचते भी तो भला कैसे. सत्तर के दशक के चंडीगढ़ को याद करते हुए बेदी बताते हैं कि मध्यमार्ग से पार तो जैसे कोई रहता ही नहीं था. सोलह कमरे, आठ पालतू कुत्तों, चार नौकरों और दो बुजुर्गों कि रिहायश वाले बंगले. मध्यमार्ग के इस तरफ सेन्ट्रल सेक्टर बन चुके थे, लेकिन भीड़ नाम की कोई चीज़ अभी पैदा नहीं हुयी थी. सड़कों पर वाहन के नाम पर कुछेक लेम्ब्रेटा या प्रिया मॉडल के स्कूटर, एक-आध उल्टे दरवाजों वाली फिएट और रोडमास्टर मॉडल की इस्टेट ऑफिस की मटमैले रंग की सरकारी एम्बेसडर कार. इनके अलावा बाकी कुछ था तो साइकिलें, जिनके लिए बाकायदा हर सार्वजनिक स्थल पर लोहे के जंगले लगाकर स्टैंड बनाए गए थे. इनमें साईकिल का अगला पहिया फंसाकर ताला लगाया जाता था.
अमेरिका की एक टॉप कम्पनी में कंसल्टेंट मनीष सिंगला का बचपन ऐसे ही शहर में बीता है. वह अभी तक याद करते हैं की कैसे सेक्टर 22 अरोमा होटल के सामने बड़े दायरे का एक चौक हुआ करता था, जिसके सामने सैनिक रेस्ट हाउस की दीवार के सहारे पुराणी कॉमिक्स बेचने वाला बैठता था. दस पैसे लेकर पुरानी कॉमिक बुक्स देता था, वहीँ अरोमा चौक की घास पर बैठकर पढने के लिए। फिर दिन में उसी चौक के डिवाइडर को विकेट बना कर क्रिकेट खेलते थे, क्योंकि सुबह दस बजे से शाम पांच बजे के बीच उस चौक से गिनकर पचास वाहन भी नहीं गुजरते थे. मनीष को दुःख है कि तरक्की के नाम पर शहर की पुरानी यादों की बखिया उधेड़ने का काम सबसे पहले उसी चौक से शुरू हुआ. उसी को उखाड़कर शहर की पहली बड़ी ट्रैफिक लाइट लगाईं गयी थी और इन्हीं ट्रैफिक लाइटस को पार करने के लिए अब दिन में कई बार ट्रैफिक जाम होता है. आने वाले दिनों में अगर यहाँ कोई फ्लाईओवर बनाने की नौबत आन पड़े तो हैरत नहीं होनी चाहिए. फ्लाईओवर बनाकर आसमान को मुट्ठी भर में समेटने के प्रस्ताव तो कई आ चुके हैं और अब मेट्रो चलाने के लिए शायद शहर के बाशिंदों के पैरों तले की जमीन को भी खिसकाने की सोच के प्लान बन रहे हैं.
शहर के पुराने बाशिंदों से शहर में बढ़ रहे प्रदूषण के बारे में बात करते हैं तो वे एक बार तो जोर से हंसते हैं और फिर ठंडी सांस लेकर मरी सी आवाज़ में कहते हैं-'बर्बाद कर दित्ता इन्हां मोटर गड्डियां ने. इत्थे कदे धुआं ते है ही नहीं सी, शोर सुनन लाई मेन रोड ते आना पैंदा सी'. बसते शहर में मेनरोड की 'बैक' लगती कोठियां लेकर खुद को खुशनसीब मानते रहे लोगो से दुखी अब शायद कोई भी नहीं है. कारण, शहर के माई-बाप बनकर डेपुटेशन पर आने वाली अफसरशाही का नजरिया बाबुओं की सोच पर बनने वाली फाइलों से आगे नहीं जाता. बड़ी सड़कों पर ट्रैफिक कम करने के बाबुओं के आईडिया पर चलने वाले अफसरों ने शहर की भीतरी (वी 3), यहाँ तक की गलियों (वी 5 ) में भी बसें दौड़ाने की योजनायें बना रखी हैं. सुबह चार बजे प्रेशर हार्न बजाती सेक्टरों के बीच की सड़कों पर घूमती बसों के शोर और धुएँ की शिकायतें दिल्ली जैसे भीड़-भड़क्के वाले शहर से आनेवाले डेपुटेशन पर आने वाले अफसरों को unreasonable लगती हैं. पिछले पचास साल के दौरान चंडीगढ़ में आए बदलाव की बात करने पर सेक्टर 35 में रहने वाला ग्रोवेर परिवार भड़क उठता है. अगर आप शहर बसाने के पीछे कर्बुजिये की सोच को ताक पर रखकर सिर्फ सर छिपाने लायक फ्लैटस डिजाइन करने करने, चौक पर ट्रैफिक जाम से बचने के लिए चौक को ही हटा देने, आसपास के पेड़ों को काटकर स्लिप रोड्स बना देने और वाहनों की अनियंत्रित संख्या को ही तरक्की मानते हैं तो आने वाले पचास साल में शहर इतनी तरक्की कर चुका होगा कि यहाँ का माहौल किसी इंडस्ट्रियल कसबे से अच्छा नहीं होगा.
ग्रोवर परिवार ही नहीं, अधिकतर लोग मानते हैं कि 'हरियां झाडियाँ' (हरियाली) और 'चिट्टियाँ दाढियां' (अनुभवी बुजुर्ग) बढ़ने के बावजूद शहर का पर्यावरण खराब होता जा रहा है. पर्यावरण का मतलब बरसात की मात्रा समझने वाली सत्तर के दशक की सोच अगर नहीं बदली गयी तो आने वाले दशकों में शहर का हर चौक-चौराहा 'हीट पॉकेट' बन चुका होगा. साथ के दशक में चंडीगढ़ आन बसे एनवायरनमेंट सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष एसके शर्मा शहर के पर्यावरण के लिए सबसे बड़े खतरे वाहनों की तादाद को लेकर डरे हुए हैं. उनका डर सच्चा है. आज से चालीस साल पहले 1964 में शर्मा के पास स्कूटर था-शहर के कुल चार स्कूटरों में से एक. अब हर घर में चार वाहन है. शहर में करीब चार लाख दोपहिया वाहन हैं. इतने ही चार पहिया. आए दिन दो पहिया चालक सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं.
पुलिस के आंकडे कहते हैं पिछले साल करीब अस्सी लोग शहर में हुयी सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए. पौने तीन सौ ज़ख्मी हुए. "जब मैंने 1976 में पर्यावरण सोसाइटी बनायी तो लोग मुझपर हँसे की सोसाइटी के पास करने के लिए काम नहीं होगा. अब सोचता हूँ कि अभी से इतनी जरूरत है पर्यावरण के लिए काम करने की तो आने वाले वक़्त में यह शहर इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे संभालेगा" यह कहना है शर्मा का.
यह सच है कि जिस तरह शहर कि आबादी बढ़ रही है इस शहर को फैलने कि जगह नहीं रह गयी है, शहर कि सड़कों पर हवा के साथ सरगोशियाँ करते पेड़ बहुत दिनों तक दिखाई नहीं देने वाले. सड़कों पर बढ़ते वाहनों के दबाव के चलते साल-दर-साल सड़कों को चौड़ा करने कि मजबूरी यहाँ के अमलतास, कचनार, पलाश और गुलमोहर को अपनी लपेट में ले लेगी. इंडियन काउंसिल फॉर एन्विरोंमेंटल एजूकेशन के सेक्रेटरी विकास कोहली आने वाले दशकों में शहर के ऐसे रूप को सोचकर चिंतित हैं. उनका कहना है कि पर्यावरण की कीमत पर सही नहीं है. आखिर, लोगों को जिंदा रहने के लिए पर्यावरण चाहिए, फ्लैटस, पार्किंग स्थल और ट्रैफिक लाइटस नहीं. और आखिर में किसी शायर का यह डर कि-
'शहर सन्नाटों का बन जायेगी दुनिया इक दिन,
यह खराबा जिंदगी का बेसदा रह जायेगा.
क्या खबर है आपको इन एटमी जंगों के बाद,
चांदनी शब् देखने को बस खुदा रह जायेगा'.