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Thursday, March 8, 2012

ये जो थोड़े से हैं पैसे, खर्च तुम पर करूं कैसे...!!



कल सेक्टर 17 के गलियारों में घूमते हुए इंडियन कॉफ़ी हाउस के सामने से गुजरते हुए एक फिल्टर कॉफ़ी की तलब हुई. फिर दूसरे ही पल मेरे आठ साल के बेटे ने यह कहकर भीतर जाने से मना कर दिया कि वो 'ढाबे' में नहीं जाता. यह आज की बात है, बीते कल की सोचता हूँ तो याद आता है कि कॉलेज के दिनों में येही कॉफ़ी हाउस हमारी हैसियत के हिसाब से बेहतरीन जगह हुआ करती थी. मसाला डोसा, साम्बर वडा और कॉफ़ी. सस्ते का जुगाड़ था.
वैसे तो 11 वाले सरकारी कोलेज की कंटीन भी कम रोमांटिक नहीं थी. पहले तो हमारी कंटीन कोलेज के बीचो -बीच हुआ करती थी, लेकिन बाद में न्यू ब्लॉक के पीछे चली गयी, जिम्नेजियम के पास. वहां से सेक्टर 11 की मार्केट की और से चोर-रास्ता भी दिखता था जहाँ से खिसककर अनुराग अब्लाश जैसे कई दोस्त कोने में बनी पनवारी की दूकान से सिगरेट खरीदने जाया करते थे और वहीँ से सिगरेट सुलगाकर आते थे. होस्टल वाले 11 की रेहड़ी मार्केट में परोंठे खाने जाते थे. वहीँ से ऊंची -ऊंची घास वाला क्रिकेट ग्राउंड भी दीखता था, जहाँ कुछ सिगरेट पीने वालों के साथ नीम्बू पानी पीने वालों की महफ़िलें भी लगती थी. कॉलेज सिर्फ लड़कों के लिए था इसलिए बिना किसी सेंसरशिप के दूर से ही गालियाँ देकर रेहड़ी वाले को नीम्बू-पानी के 'चार और ग्लास' भेज देने के आर्डर भी दे दिए जाते थे.
अब तो लड़कियां भी पढ़ती हैं उस कोलेज में और नाम भी गवर्नमेंट कोलेज फार बोएज था. बदलकर पोस्ट ग्रेजुएट कोलेज कर दिया गया है. कंटीन में वही टिपिकल लोहे की फोल्डिंग कुर्सियां और टेबल थी. चाय भी सस्ती थी और समोसा भी. हरमन सिद्धू वहीँ मिला करता था कभी कभी. लेकिन भीतर के कवि टाइप मन को वो माहौल नहीं मिल रहा था जो 'बुद्धिजीवी' टाइप लोगों का हुआ करता था उन दिनों. वो माहौल इंडियन कॉफ़ी हॉउस में ही था. नीम- अँधेरे कोने और सुस्त पंखे और उनींदा सा माहौल. और सबसे अच्छी बात ये की घंटों तक बैठे रहने पर भी कोई यह पूछने नहीं आता था कि कुछ और चाहिए या नहीं.
वैसे उन दिनों सेक्टर 17 में ही एक और रेस्तरां 'क्वालिटी' भी था. वहां दरवाजे पर दरबान होता था जो बाकायदा सलाम ठोकता था. वहां जाने का मन तो बहुत था लेकिन उतने पैसे का जुगाड़ करने का मतलब था कि पूरे महीने की पॉकेट मनी एक बार में ही उड़ा देना. कॉलेज की तीन महीने की फीस ही एक सौ बीस रुपए थी तो पॉकेट मनी की रकम का तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है. साईकिल से कॉलेज आते जाते थे. बाद में एक दोस्त राजीव अगरवाल के साथ वहां जाने का मौका भी मिला, लेकिन आर्डर करते वक़्त रेट लिस्ट देखने की मजबूरी में कॉफ़ी का स्वाद ख़राब हो गया. आर्डर रीपीट करने की तो गुंजाइश ही नहीं थी. क्वालिटी अब बंद हो गया है. यहीं हुआ करता था नीलम सिनेमा से बाटा वाली साइड में दो -तीन शोरूम छोड़कर ही.
बाद में पॉकेट मनी के हिसाब से सेक्टर 22 का साईं स्वीट्स एक तरह से पक्का ठिकाना बना. हालांकि, बचपन में तो मेरा घर साईं स्वीट्स के बिलकुल सामने की सड़क पार करके ही सेक्टर 21 में हुआ करता था, रोड भी सिंगल ही थी. ट्रेफिक ना के बराबर. लेकिन यहाँ आने का सिलसिला बहुत बाद में शुरू हो सका. आज भी है. वहां का माहौल और चाय आज भी मनपसंद हैं. हर तरफ साईं बाब की तस्वीरें, वही सालों पुराना फर्नीचर और वही लोग. गर्मियों के दिनों में कूलर ही ठंडक देता है और उमस भी, लेकिन एसी नहीं लगे आज तक. इसलिए सर्दियों में मुझे यह जगह ज्यादा पसंद आने लगी है.
नौकरी के शुरुआती दिनों में जेब में इतने ही पैसे बचते थे कि वहां समोसा और चाय का मजा आराम से ले सकते थे. आज भी पॉकेट मनी का हिसाब रखने वालों के लिए वो एक बेहतरीन जगह है.
पॉकेट मनी की बात से याद आया कि पिछले दिनों मेरे बेटे ने मुझसे उसकी पॉकेट मनी देने को कहा . दूसरी क्लास में पढने वाले बच्चे के हिसाब से पॉकेट मनी की जरुरत मैं नहीं समझता और बोला -'बेटे, और किसी बच्चे को पॉकेट मनी मिलती है कोई?" बेटे का जवाब -'हाँ , नोबिता को....!!!"

Sunday, November 20, 2011

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने...!!




बिग सिनेमा मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाने से पहले ही मेरे बेटे ने दो शर्तें रख दी. पहली यह कि डायमंड कटेगरी की टिकट लेनी पड़ेगी, यानी डेढ़ सौ रुपये वाली. और दूसरी यह कि फिल्म शुरू होने से पहले पॉपकार्न और इंटरवल में 'कॉम्बो-मील' दिलाना पड़ेगा. चमचमाते मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने वाली इस जेनेरेशन ने सेक्टर २२ में किरण सिनेमा के बारे में यह टिप्पणी की थी कि इतने छोटे हाल से अच्छा तो घर में लगा 42 इंच का एलसीडी ही है.
मुझे याद आया कि चंडीगढ़ में आने के पहले या दूसरे साल स्कूल की ओर से बच्चों की एक फिल्म दिखाने लेकर जाया गया था सेक्टर 22 के किरण सिनेमा में. फिल्म का नाम तो मुझे याद भी नहीं है, शायद किसी बच्चे को पता ही नहीं था. तीसरी क्लास की बात है या चौथी की. हाँ इतना याद है कि सेक्टर 21 के स्कूल से पैदल ही लाइन बना कर बच्चों को सिनेमा हल तक ले गए थे, इस सारे मामले में हंसने की बात यह थी कि हमारी क्लास टीचर का नाम भी किरण था ओर हम बच्चे उस को लेकर खुसरपुसर करते हुए हंस रहे थे. तब हमें नहीं पता था कि किरण सिनेमा शहर का पहला सिनेमा हाल था ओर कुल जमा चार सौ सीटों वाले इस सिनेमा हाल में फिल्म देखने के लिए लम्बी लम्बी लाईने लगती रही है. उसके बाद मैंने शायद दूसरी ओर आखरी फिल्म चांदनी देखी थी.
चंडीगढ़ में किरण के बाद बना था सेक्टर 17 का जगत सिनेमा जिसे अब तोड़कर एक नया मल्टीप्लेक्स बना दिया गया है. ओर सुना है इसके बाद सेक्टर 17 में ही बने नीलम सिनेमा हाल का भी येही हाल होने वाला है. सुपर-डुपर फिल्म 'शोले' जगत में ही लगी थी. जगत सिनेमा ऐसा था जिसमे सीढ़ियों पर लाल रंग का कारपेट लगा हुआ था ओर बड़े बड़े शीशे लगे थे. जगत सिनेमा एक वक़्त में अंग्रेजी फिल्मों के लिए मशहूर हो गया था. शायद 1997 के दिनों में. हमारे कोलेज के नए-नए दिन थे. अनुराग अब्लाश के साथ एक दो अंग्रेजी फिल्म भी देखी, साढ़े चार रुपये वाली बालकोनी में. उप्पर स्टाल तो शायद अढाई रूपये में ही मिल जाती थी. लोवेर स्टाल भी था डेढ़ रुपये में, लेकिन वो हमारे स्टेटस से थोडा नीचे था. तब इंटरवल में दस रुपये में 'गोल्ड स्पोट' ठंडा और पोपकोर्न का 'कॉम्बो' मिल जाया करता था. या बहुत हुआ तो अखबार में लिपटा हुआ ब्रेड-पकोड़ा.
इसके साथ लगता ही एक और सिनेमा हाल था 'केसी' . केसी की बिल्डिंग गोल थी. देखने में ही बड़ी रोचक थी. अब तो नहीं है. पता नहीं क्या बनेगा वहां. मैं जब सातवी या आठवी में था तब शायद 'बतरा' बना. तब तक वहां तक शहर बसा नहीं था. इसलिए वहां भूत होने की बाते भी सुनी थी, लेकिन फिर भी एक बार मैं और तिरलोक रात वाला शो देखने गए थे, फिल्म थी रामसे भाईओं की 'दरवाजा'. साड़ी बालकोनी में हम तीन जने थे,. इंटरवल में ही भाग आये डर के मारे .
उसके बाद मनीमाजरा वाला ढिल्लों सिनेमा भी बना और सेक्टर 32 में 'गन्दी' फिल्मों वाला निर्माण भी. एसडी कोलेज वालों की वहां काफी चलती थी टिकट लेने में. अब तो पिकाडली भी मल्टीप्लेक्स बन गया है, जगत और ढिल्लों भी. जीरकपुर में बिगसिनेमा है, इधर सेंतरा माल है और डीटी सिनेमा. आज कल के बच्चों के लिए कई तरह के कॉम्बो मील हैं और सबसे बड़ी बात, टिकट के लिए लाइन में लगने की जरूरत नहीं. ऑनलाइन बुकिंग हैं न.
फिर वही सवाल-पापा, आप के ज़माने में 3 डी मूवी हुआ करती थी क्या? मैंने याद किया-हाँ एक आई तो थी ऐसी फिल्म, क्या नाम था---हाँ, छोटा चेतन.

Wednesday, November 2, 2011

खुश रहे तू सदा, ये दुआ है मेरी..




अभी बचपन के दौर में है, शरीर में जोश है, इसलिए भीतर पनप चुकी बीमारी अभी उभर नहीं रही, लेकिन शर्तिया तौर पर जिस तरह शरह का मिजाज़ बदल रहा है, इसकी सेहत बहुत बिगड़ जायेगी. इलाज तो यह है कि अभी से परहेज शुरू कर दिया जाये.
यह कहा जा रहा है उस बच्चे शहर के बारे में जिसे सिटी ब्यूटीफुल कहा जाता है. बच्चा इसलिए कि कुछ समय पहले कोलकाता ने उसके तीन सौ साल और फिर हैदराबाद ने बसासत के पांच सौ साल पूरे किये हैं और बुढापे की और बढ़ चले हैं. लिहाजा पचास साल के इस चंडीगढ़ को तो टीनएजर ही कहा जायेगा. अब ऐसा शायद न रहे. जिस तरह शहर का चेहरा बदल रहा है, उससे लगता है कि शहर की सेहत भी बहुत अच्छी नहीं रहेगी.
शहर के पुराने बाशिंदे याद करते हैं कि शहर कितना हसीन और सेहतमंद था. अस्पताल और डिस्पेंसरियां खाली पड़ी रहती थी. कार्ड बनवाने के लिए लाइन में लगने जैसी बात सुनना मजाक लगता था. और डाक्टर भी ऐसे कि मर्ज़ के साथ मरीज़ के घर-भर में सदस्यों की बिमारी का इतिहास और गणित उँगलियों पर रखते थे.
चंडीगढ़ बसने के दिनों से सेक्टर 21 में रहने वाले तिरलोक ठुकराल मेरे साथ पढ़े हैं स्कूल में. इनसे बात कि तो बताया कि एक मामूली सी बीमारी के चलते उन्हें सेक्टर 22 के पोलीक्लिनिक जाना पड़ा. उन्हें यकीन नहीं हुआ कि यह वही हेल्थ सेंटर है जहाँ गिनकर दो या तीन डाक्टर हुआ करते थे और मरीजों की बाट जोहते थे. अब इतने डाक्टर और उनके कमरों के बाहर लगी मरीजों की भीड़.
यह एक घटना है यह बताने के लिए कि शहर में इलाज की सुविधाएं तो तेजी से बढ़ी हैं लेकिन मरीज जितनी तेजी से बढे हैं, उससे लगता है जैसे सारा शहर ही बीमार हो गया है.
पहले एक पीजीआई था, एक 'सोलां' और एक 'बाई' वाला हेल्थ सेंटर. डिस्पेंसरियां तो जैसे बच्चों के लुकाछिपी खेलने के लिए बनायी गयी थी. दूर-दराज़ से रेफर कराकर और घरेलु नुस्खों से ही ठीक हो जाने वाली सर्दी-जुकाम जैसी मामूली बीमारी लेकर पीजीआई में दाखिल होने का रिवाज भी नहीं था. वैसे तो मरीज़ 'बाई' वाले हेल्थ सेंटर से ही दवाएं ले लिया करते थे और सेक्टर 21 में सैनिक रेस्ट हाउस के पिछवाड़े में मलेरिया सेंटर में खून की जांच करा लिया करते थे. बहुत हुआ तो रेबीज़ से बचाव के लिए पेट में टीके लगवाने के लिए सेक्टर 19 की डिस्पेंसरी चले जाते थे.
मुझे पिछले दिनों सेक्टर 22 के पोलीक्लिनिक में जाना पड़ा. मुझे हैरानी हुयी कि इस 'हेरिटेज' भवन का मेन दरवाजा बंद करके इसे दूसरी तरफ से कर दिया गया है. मरीजों के लिए बनाए गए बड़े से हाल को अलुमिनियम की पार्टीशन से कमरों में बदल दिया गया है और चंडीगढ़ का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजिये के ट्रेड मार्क ईंटो की जाली वाले डिजाइन को बंद कर दिया गया है. चंडीगढ़ के माई-बाप कहलाने वाले अफसरों ने इतना दिमाग लगाने की जेहमत नहीं उठाई कि शहर के पहले हेल्थ सेंटर को बचने के लिए किसी और डिस्पेंसरी को बड़ा बना देते. साथ लगी फोटो पुराने मेन गेट के सामने से ली गयी है.
'सोलां' में दाखिल होना बड़ी बात हुआ करती थी. नतीजा, जिस पीजीआई के इमरजेंसी में पड़े मरीज़ को दाखिल कराने के लिए मिन्नतें करनी पड़ती हैं, उसी पीजीआई के पांचवी मंजिल पर बने जनरल वार्ड में मरीज़ कम और डाक्टर अधिक नज़र आते थे. अब हालात हैं कि पीजीआई में हर रोज़ पांच हज़ार मरीज़ आते हैं.
तब डाक्टर और मरीज़ का आपसी रिश्ता सा हुआ करता था. डाक्टर पूरे परिवार की बीमारियों की केस हिस्टरी रखते थे. शहर का माहौल ऐसा बदला है कि डाक्टर के साथ मरीज़ का रिश्ता और मरीज़ के बारे मं उसकी याददाश्त कार्ड पर लिखी केस हिस्ट्री तक ही सिमट कर रह गयी हैं. शायद येही कारण है कि इस शहर से फैमिली डाक्टर रखने की कांसेप्ट ख़तम होती जा रही है.
यहाँ चंडीगढ़ में परिवार कल्याण निदेशक रहे डाक्टर एमपी मिनोचा से इसी मुद्दे पर करीब दस साल पहले एक बार बात हुई थी. तब उनका कहना था था कि डाक्टर-पेशेंट का रिश्ता अभी और कमजोर होगा. आने वाले बीस-तीस सालों में ही शहर के लगभग आधे डाक्टरों का उनके मरीजों से अदालती झगडा चल रहा होगा. सत्तर के दशक में चंडीगढ़ आये मिनोचा अब रिटायर होकर दिल्ली जा चुके हैं उनका कहना था कि कभी साईकिल चलाने वाला शहर अब सैर भी नहीं करता. नतीजन, हाई ब्लड प्रेशर, डाइबिटीज और मोटापा बढ़ने लगा है. रही-सही कसर ट्रेफिक का धुआं पूरी कर रहा है.
खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि यह शहर जवानी में ही बूढ़ा न लगने लगे.

Saturday, July 23, 2011

बीती हुई ये घड़ियाँ फिर से ना गुजर जाएँ....




मेरे सात साल के बेटे ने आकर कहा-पापा आपके पास चालीस रूपये हैं? मैंने कहा-हाँ, तो उसका जवाब आया कि -फिर टाटा स्काई पर 'एक्टिव गेम्स' का पैक क्यों नहीं लगवा देते? मैं उसकी इस बात को पहले भी कई बार अनसुना कर चुका हूँ, क्योंकि डोरेमोन, मिस्टर बीन, बेन-टेन और ओगी एंड द कोक्रेच देखने में ही हर रोज़ तीन घंटे तक टीवी के आगे बैठे रहने से उसकी आई-साईट पर असर पड़ने के डर से मैं अन्दर ही अन्दर डरा रहता हूँ. और ये टाटा स्काई वाले भी बच्चों के लिए ही कम से कम पांच चैनल चला रहे हैं. पोगो, निक्क, डिस्नी, कार्टून नेटवर्क और पता नहीं कौन से.
मुझे याद आया उसकी उम्र में मेरे जैसे बच्चों के लिए कोई भी प्रोग्राम नहीं था सिवाय एक के. शनिवार की शाम पांच बजे जालंधर दूरदर्शन से एक कार्टून शो आता था 'जिम्मी एंड द मैजिक टॉर्च'. पर उसे देखने में यह दिक्कत थी कि जालंधर दूरदर्शन के सिग्नल मनमर्जी के मालिक थे. सिग्नल आया तो आया नहीं आया तो नहीं. शहर में गिनती के टेलीविज़न थे. 1982 में हुए एशिआड खेलों के बाद ही टेलिविज़न का दौर आया था. तब हमारे घर में टेलिविज़न नहीं था. मनीष के घर पर था, लेकिन उसे टेलिविज़न देखने का कोई ख़ास शौक़ नहीं था. टेलिविज़न देखने की बजाय वह फैंटम की कोमिक्स की अदला-बदली करने में लगा रहता. एक दो बार उसके घर में जिम्मी वाला शो देखा भी, पर उसकी गैर-मौजूदगी में अजनबी से बन कर बैठना पड़ा.
उन दिनों टेलिविज़न वालों का अपना अलग रुतबा था. उनकी दोस्ती थी क्योंकि सिग्नल नहीं आने के सब के दुख तो सांझे थे ही, टेलिविज़न के एंटेना के तार भी. उन दिनों टेलिविज़न का एंटेना करीब बीस फुट ऊँचा लगता था, यानी एंटेना अपने घर की छत पर और तारें पड़ोसियों की छतों के जंगलों से बंधी होती थी. इसलिए अच्छे पडोसी बने रहना भी मजबूरी थी. सिग्नल नहीं आने का 'कोमन डिस्कशन' था और वीएचऍफ़ से यूएचऍफ़ बूस्टर लगवाने की सलाहों का दौर. फिर टेलिविज़न खरीदने की योजना बना रहे पडोसी को 'क्राउन', 'टेक्सला', या लकड़ी के दरवाजे वाला 'ईसी टीवी' की खूबियाँ और कमियां बताने का दौर और यह भी कि टीवी खरीदने जाओ तो दुकानदार से पहले ही खोल लेना की आगे लगने वाली रंगीन स्क्रीन साथ में फ्री लेंगे.
एक और नज़ारा था जो पहले बुधवार की शाम, फिर, वीरवर की शाम और फिर रविवार की सुबह देखने को मिलता था और वह था एंटेना की दिशा बदलने का कार्यक्रम. असल में उन्ही दिनों कसौली में एक लो फ्रिक्वेंसी का ट्रांसमीटर शुरू हो गया था जो दिल्ली दूरदर्शन के प्रोग्राम रिले करता था. बुधवार की शाम जालंधर दूरदर्शन से चित्रहार आता था तो वीरवार को दिल्ली से फिल्म. उसके बाद रात को 'बुनियाद' और रविवार की सुबह 'स्टार-ट्रेक' जैसे प्रोग्राम. कुल मिलाकर हर टेलिविज़न वाले घर में रोज़ शाम को लगभग एक जैसा सीन होता था, एक मेम्बर छत पर चढ़कर एंटेना की दिशा जालंधर से बदलकर कसौली की और करता और दूसरा नीचे टेलिविज़न के आगे खड़ा होकर चिल्ला-चिल्लाकर "आ गया, नहीं, हाँ, हाँ आ गया, थोडा और घुमा" जैसे सन्देश प्रसारित कर रहा होता. जब तक हमारे घर में टेलिविज़न नहीं आया था, तब तक मैंने भी एक-आध बार हमारे पडोसी मोंटी गिल और पहली मंजिल पर रहने वाली मनीषा गुप्ता के बैंक मैनेजर पापा की मदद की थी. मनीषा को भी चित्रहार देखने का काफी शौक़ था और उसके चलते उसने कई बार मेरे सामने ही उसके पापा से डांट भी खाई, लेकिन सुबह स्कूल जाते समय उसने जबरदस्ती टीवी बंद कर दिए जाने के लिए सॉरी भी बोला. मैंने कहा-कोई बात नहीं. मेरे घर में टीवी आने के बाद मनीषा से हफ्ते में दो बार सॉरी सुनने के मौके भी जाते रहे.
ब्लैक एंड व्हाईट टीवी का ज़माना कब बीता, पता नहीं चला, मेरे घर में कब ब्लैक एंड व्हाईट 'क्राउन' से कलर टीवी 'अकाई' और फिर 'एलजी' आ गया, पता ही नहीं चला. पिछले दिनों सेक्टर 22 में डिस्पेंसरी के सामने उस कोने वाले घर की छत पर अभी तक भी बीस फुट के एंटेना के साथ डिश भी लगी देखी तो ध्यान दिया कि वहां से कसौली की पहाड़ियाँ साफ़ दिखती हैं. हाँ डिश की दिशा जरुर दिल्ली की और हो गयी है.
घर आकर बताया कि शहर में अभी तक भी ब्लैक एंड व्हाईट टीवी के एंटेना लगे हुए हैं तो बेटे ने पूछा-पापा, आपके ज़माने में टीवी लकड़ी के बने होते थे? मैंने कहा-हाँ. अगला सवाल-तो क्या रिमोट भी लकड़ी के थे?

Saturday, May 22, 2010

नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा...!!


इतने साल तक चड़ीगढ़ में रहने के दौरान शायद शहर की सीमा में ही बसे इस गाँव में जाने की जरूरत शायद एक या दो बार ही पड़ी. इसलिए इस इस गाँव के नाम और इसके इतिहास के बारे में जानने के बारे में भी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं हुई. लेकिन हाल ही में मुझे यह पता लगा कि इस मजाकिया से लगने वाले नाम का सम्बन्ध महाभारत काल से है.
डडू माजरा..यह नाम अपने आप में सिर्फ इतना आकर्षण रखता है है कि पंजाब के बहुत से गाँवों के नामों की तरह इसका नाम भी जानवरों पर है. पंजाबी में 'डडू' मेंढक को कहते हैं. अब शायद आपको भी यह नाम मजाकिया लग रहा हो.
यहाँ बता देता हूँ कि पंजाब के मालवा इलाके में दर्जनों गाँवों के नाम जानवरों के नामों पर हैं और काफी मजाकिया लगते हैं. हाल ही में कुछ गाँवों की पंचायतों ने तो सरकार को लिखकर भी दिया है कि उनके गाँव का नाम बदल दिया जाए क्योंकि उन्हें उनके गाँव का नाम बताते हुए शर्म आती है. सिरसा के जिस गाँव में मेरी बुआ रहती है, उसके पास ही एक गाँव है 'कुत्ते वढ' यानि कुत्तों को काटने वाला. कोई तीन दशक पहले बंजर जमीन वाले इस गाँव में मेरे एक भाई ने कुछ जमीन ली थी, जिसे उसने अपनी मेहनत से वहां फसलें लहलहा दी और फिर उसी गाँव में बसने का फैसला कर लिया. उसने जब अपना विजिटिंग कार्ड छपवाने का इरादा बताया तो मेरी बुआ के बेटे ने सुझाव दिया कि वह अपने नाम के साथ गाँव का नाम भी लिखवा ले, जैसे पंजाब में रिवाज है. तो उसके नाम का विजिटिंग कार्ड 'केवल सिंह कुत्तेवढ' के तौर पर बना. बाद में जब उसके कुछ दोस्तों ने उसे 'केवल' या 'केले' की बजाय ' हाँ बई, कुत्तेवढ, क्या हाल है?' कहना शुरू कर दिया तो उसने विजिटिंग कार्ड में 'भूल सुधार' भी किया.
ऐसे ही कई गाँव है जिनके नाम अब भी जानवरों के नाम पर हैं. बठिंडा के पास एक गाँव 'गिदडाँ वाली' है जहाँ के लोगों ने सरकार से मांग की है कि गाँव का नाम बदल कर इसके असली नाम शेरपुरा पर रखा जाये, जिसे सालों पहले एक धर्मस्थान का पानी चोरी करने के कारण एक साधू ने श्राप देकर शेरपुरा से गिदडाँवाली कर दिया था.
खैर, डडू माजरा का नाम बदलें की तो कोई मांग नहीं आये है, लेकिन यह मांग जरूर उठी है कि यहाँ बने महाभारत कालीन एक मंदिर का सुधार किया जाए. मैंने जब इसके बारे में सुना तो पता लगाया और पाया कि 'डडू' उस भील बालक को प्यार से घर में पुकारे जाने का नाम है जिसे महाभारत ग्रन्थ में 'एकलव्य' कहा गया है. यहाँ बना मंदिर वही जगह है जहाँ एकलव्य ने पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य की मिटटी की मूर्ति बनाकर, उसे ही गुरु धार कर तीरंदाजी सीखनी शुरू की थी. यह जगह गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम 'गुरु गाँव' (आज के गुडगाँव) से एक सौ कोस की दूरी पर था. यहाँ एक कुआं भी है, शायद वही है जिसका जिक्र महाभारत में एकलव्य के घर के बारे में मिलता है. आज भी यह डडू माजरा की गुडगाँव से दूरी इतनी ही है, करीब तीन सौ किलोमीटर..!!

Sunday, April 18, 2010

दिल का क्या रंग करूं, खून-ए-जिगर होने तक..!!


अब जब शहर यूनेस्को की हेरिटेज लिस्ट में आने को तैयार है तो शहर के हुक्मरानों को एक नया आईडिया आ गया है इस शहर की शक्ल-ओ-सूरत खराब करने का. मुझे नहीं लगता कि यह आईडिया किसी अफसर के दिमाग की उपज है क्योंकि या तो ये एयर कंडिशनर लगे दफ्तरों से निकलते नहीं, निकलते हैं तो सरकारी कारों के काले शीशों पर भी परदे लगाकर. और जहाँ तक शहर के हुक्मरानों के सेक्टर 17 आने का सवाल है, मैंने पिछले लम्बे समय से इतने बड़े किसी अफसर को सेक्टर 17 में नहीं देखा जो शहर के बारे में बड़ा फैसला लेने की औकात रखता हो.
सेक्टर 17 के बारे में वही लोग फिक्रमंद होसकते हैंजो दिनमें कम से कम एक बार या हफ्ते में दो बार यहाँ सिर्फ घूमने या किसी पेड़ के नीचे बैठकर चाय पीने के लिए आते हों. मैं दूसरी किस्म का हूँ, मतलब जो यहाँ किसी पेड़ के नीचे बैठकर चाय पीते हुए इस शहर का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कर्बुजिये की समझ और पसंद को 'डिकोड' करने की फिराक में है. ली कर्बुजिये की इस समझ और पसंद को इस सरकारी अफसरों की तरह मैं भी अब तक डीकोड नहीं कर पाया हूँ कि उसने शहर के दिल कहे जाने वाले सेक्टर 'सतारां' की इन इमारतों पर पेंट क्यों नहीं किया था, और सिर्फ सीमेंट के रंग की इन इमारतों में वोह कौन सी खूबसूरती है कि इसको पेंट करने के सरकारी इररादों के खिलाफ मेरे जैसे कई लोग उठ खड़े हुए हैं.
सुना है, किसी ठेकेदारनुमा छूते अफसर ने बड़े साह्बोंको यह आईडिया दे दिया है कि सेक्टर 17 की इमारतों को पेंट कर देते हैं. जाहिर है, किसी ठेकेदार को काम मिलेगा तो सबको फायदा होगा. जैसा कि चंडीगढ़ में डेपुटेशन पर आने वाली अफसरशाही की समस्या है, यह लोग फाईलों से आगे देखते ही नहीं. चंडीगढ़ में आने वाले यह अफसर यह जानने की कोशिश भी नहीं करते कि चंडीगढ़ सिर्फ एक शहर भर नहीं है, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का नए भारत के लिए देकः एक ऐसा सपना है जो देश की पुरानी सोच को बदलने का संकेत हो. ली कर्बुजिये ने वही बनाकर दे दिया, लेकिन यह रिटायरमेंट की दहलीज पर बैठे पुराने बाबू लोग नौकरी की फ़िक्र में घर से दफ्तर के रास्ते के अलावा इधर उधर देख ही नहीं पाए. गाँव- क़स्बा छोड़कर यहाँ सरकारी नौकरी के लालच में बैठे बाबुओं के इस शहर का जिओग्रफ़िया और आर्किटेचर न तो समझ आया और न ही रास आया.
खैर, अब यह है कि, ली कर्बुजिये के साथ काम कर चुके और पंजाब के पहले चीफ इंजिनीयर रह चुके एमएन शर्मा ने सेक्टर सतारां की इमारतों अपर रंग रोगन करने के खिलाफ आवाज़ तो उठाई है, शहर को यूनेस्को के हेरिटेज सिटी का दर्जा मिलने का वास्ता भी दिया है, देखते हैं, अकल कम करती है या ठेकेदारों की लॉबी.

Wednesday, February 10, 2010

दूर तक निगाहों में है गुल खिले हुए..




चंडीगढ़ में फिर से गुलों का मौसम आ गया है. शहर के बागों में फूल खिल उठे हैं...शहर के मशहूर रोज़ गार्डन में गुलाब खिलखिलाने लगे हैं. क्यारियों जैसे रंगोली बन गयी हैं. रोज़ गार्डन अब भी उतना ही खूबसूरत है जितना आज से दशकों पहले हुआ करता था. वही गुलाबों से सराबोर माहौल. पहली बार यह रोज़ गार्डन देखने का मौका कब मिला था यह तो ठीक से याद नहीं, शायद सत्तर के दशक के आखिरी सालों में जब हम चंडीगढ़ के बाशिंदे बने तब देखा था...लेकिन तब ध्यान रोज़ गार्डन में न होकर पास ही के खाली मैदान में चल रहे दिवाली मेले के झूलों में अटका था. अब तो वहां जगह नहीं बची है जहाँ वह दिवालो मेला लगा हुआ था. बस अड्डा बड़ा हो गया है, पास के खाली जगह को पहले सर्कस ग्राउंड कहते थे, लेकिन वहां भी आजकल कुछ बन रहा है शायद मल्टी-लेवल पार्किंग या कुछ और.
खैर, बात रोज़ गार्डन की हो रही थी. पहली बार अकेले यहाँ आने का मौका शायद '84 की फरवरी में मिला था. आठवीं के बोर्ड के इम्तिहान थे. सेंटर सेक्टर 23 का सरकारी स्कूल बना था. आखिरी पेपर शायद ड्राईंग का था. पेपर खतम होने की ख़ुशी और 'ड्राईंग में कौन सा पढ़ना होता है' की कहावत पर अमल करते हुए पेपर से दो दिन पहले ही स्कीम बना ली थी पेपर के बाद आवारागर्दी की. प्रोग्राम तो था सेक्टर 'सतारां' जाकर शहर की एकमात्र वीडियो गेम वाली दुकान 'वाईब्रेशन' पर कब से इकट्ठे किये हुए पांच रुपयों से मजे करने की. सो, पेपर में फ़टाफ़ट कलाकृतियाँ बनाकर भाग निकले हम. मेरे साथ तिरलोक ठुकराल से अलावा और कौन था, अब ठीक से याद नहीं..पुरानी बात हो गयी है. इतना याद है कि चार-पांच का ग्रुप था. सो, सेक्टर 23 से निकलकर सेक्टर 16 होते हुए जब हम जा रहे थे तो शायद मनीष का आइडिया था कि स्टेडियम के पीछे से कच्चे रास्ते से साइकलें चलाने का मज़ा लेते हुए वीरान रहने वाले शांति कुंज से शॉर्टकट मारेंगे. उन दिनों शांति कुंज एक जंगल से अधिक कुछ नहीं था जिसमे आदमकद घास लगी थी और बीच में से गुजरने वाले नाले के पास शराब पीने वालों ने पक्का ठिकाना बना रखा था..यह बातें भी हमें मनीष से ही पता लगी. बाद में मनीष ने अपने जीवन की पहली सिगरेट इसी पार्क में बैठकर पी थी...और यह भी कह था..'यार अगर इंजीनियरिंग में दाखिला मिल गया तो सिगरेट छोड़ दूंगा.. बाद में उसने नॉन-मेडिकल ही छोड़ दिया था.
तो बारास्ता शांति कुंज गुजरते हुए मैंने पहली बार रोज़ गार्डन देखा. उस से पहले किताबों में छपने वाली फोटो के लाल रंग वाले फूल को ही गुलाब समझता था. उस दिन देखा गुलाब न सिर्फ लाल था बल्कि पीला, सफ़ेद और दो-रंगा भी. उसका असर यह हुआ कि मैं और तिरलोक तो वहीँ रुक गए, लेकिन बाकियों को वीडियो गेम का मोह रोक नहीं पाया.
बाद में शायद एक-दो बार ही जा पाया रोज़ गार्डन में, लेकिन इसके बाहर से गुजरने वाले मध्य मार्ग से लगातार आना जाना होता रहा.
तीन दिन पहले एक केस के सिलसिले में हम सब घंटों से कोर्ट के सामने खड़े थे. अचानक राकेश गुप्ता ने सुझाव दिया कि सामने तक सैर करते हैं.. सैर करते हुए रोज़ गार्डन पहुंचे और पाया कि रोज़ गार्डन आज भी वैसा ही खूबसूरत है.
चंडीगढ़ के बाशिंदों के अलावा लोग शायद यह न भी जानते हों कि यह रोज़ गार्डन एशिया का सबसे बड़ा रोज़ गार्डन है..करीब 27 हज़ार वर्गफुट में फैला हुआ और इसमें गुलाब के 17 हज़ार से अधिक फूल हैं..वह भी कम से कम अढाई सौ किस्मों के...व्हाईट हॉउस, स्नो व्हाईट और किस ऑफ फायर जैसे नामों वाले.
हाँ..अब शांति कुंज भी संवर गया है..शायद शहर के सबसे अच्छे पार्कों में से एक...!! जिस पेड़ के नीचे मनीष ने उन दिनों की सबसे महंगी सिगरेट 'डनहिल' का पहला कश लिया था, उस पेड़ के आसपास अब फूलों की क्यारियां हैं..प्टुनिया के मुस्कुराते हुए फूल..!!