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Sunday, December 20, 2009

रहें ना रहें हम, महका करेंगे....



खबर तो मुझे बहुत पहले ही मिल गयी थी अखबारों से, लेकिन देखने जाने का वक़्त निकाल ही नहीं पाया. और कल जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि मेरी यादों में इक्कीस साल तक बसा रहा वो टावर अब नहीं रहा. और तभी मुझे समझ आया कि यह टावर यादों में तो असल में आएगा अब ही.
यही तावेर जिसकी तस्वीर आपदेख रहे हैं, अब नहीं है. जैसा कि आप दूसरी तस्वीर में देख पा रहे हैं. खबर यह है कि बिजली की तारों में शॉर्ट सर्किट हो जाने के कारण इसमें करवा चौथ की रात आग लग गयी और चाँद देखने आयी संक्दों औरतों की मौजूदगी में टावर खाक हो गया. जले हुए टावर के अवशेष हटा दिए गए हैं. इसे फिर से नहीं बनाये जाने के पीछे सरकारी अफसरों के जो भी तर्क हों, मेरा तर्क है कि आवारगी के शुरूआती दौर कि मेरी यादों के साथ जुड़े रहे इस टावर को मैं बहुत याद करूँगा.
यह बात 1988 की है जब हम नए नए कालेज जाने लगे थे. बोटनी क्लास का लेक्चर बंक करके झील पर जान शुरू किया था. और तभी से झील के बीचोबीच बने टापू पर जाने की इच्छा उठी. वहां जाना मना था. टापू पर जाने का एक ही तरीका था और वह था किश्ती से जाना. लेकिन किश्ती टापू के पास रुकते ही सुखना झील के गार्ड मोटरबोट लेकर आ पहुँचते. टापू पर जाने की इच्छा बढती जा रही थी.
खैर, उन्हीं दिनों चंडीगढ़ की सुखना झील में आल इंडिया रोइंग चैम्पियनशिप हुयी थी. झील के आखिरी छोर तक देखने के लिए झील के बीचोबीच बने टापू पर यह निगरानी टावर बनाया गया था. और टापू पर जाने के लिए किश्तिओं को एक लाइन में खड़ा करके उनके ऊपर से पुल बनाया गया. लेकिन वहां जाने की इजाजत सिर्फ स्पोर्ट्स से जुड़े लोगों को ही थी. चूँकि पंजाब में आतंकवाद का दौर चल रहा था, सो इस पुल की सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ तैनात की गयी थी. एक दो बार कोशिश की पुल पार करके टावर पर जाने की, लेकिन सीआरपीएफ वालों ने भगा दिया.
जिस दिन चैम्पियनशिप ख़त्म हुयी, उस दिन चहल-पहल में मौका मिल गया और मैं टापू पर जा पहुँच. टावर के ऊपर तक जाने का मौका भी हाथ लग गया. वहां से सुखना झील समंदर सी लगी. टावर के ऊपर खड़े होकर पानी देखने से लगा जैसे जहाज में बैठे हों. बस उसी दिन से उस टावर के साथ मेरी यादें जुड़ गयी. हालांकि मैं उसपर दुबारा नहीं जा सका.
चैंपियनशिप तो एक हफ्ते में ख़त्म हो गयी, लेकिन टावर को नहीं हटाया गया, और वक़्त के साथ टावर सुखना के साथ जुड़ गया. एक पहचान के तौर पर. हज़ारों लोगों ने इसके फोटो लिए और सुखना पर आने की याद बनाया. अब नहीं है. अब यादें हैं.

Wednesday, October 7, 2009

मेरी आवाज़ ही पहचान है...गर याद रहे..!!



येही आवाज़ थी जो सत्तर के दशक के हम बच्चों को घरों से बाहर खींच लाती थी. गर्मी की छुटियों में जब धुप में बाहर न निकलने की सख्त हिदायत होती थी और मैं घर की खिड़की से लगा बैठा रहता था इस उम्मीद में कि पास में रहने वाले मनीष सिंगला, नीरज शर्मा, केनेथ डी'सूज़ा या लखन सिंह में से कोई खेलने के बुलाने आ ही जाये. तभी कहीं से यह आवाज आती थी और घर से बाहर निकलने का बहाना मिल ही जाता था. 'ला...लाला लाला लाला, मेरे अंगने में..' लावारिस फिल्म के इस गाने की पहली लाइन सुनते ही गली में रहने वाले सभी बच्चों को सिग्नल मिल जाता कि 'बाहर निकलने और खेलने की स्कीम बनाने का बहाना मिल गया.
ये आवाज़ थी बाईस्कोप की. दूर गली के मोड़ पर उसके भोंपू से गाने सुनते ही बीस पैसे की मांग शुरू हो जाती. असल में वह बाईस्कोप पर फोटो वाली फिल्म दिखाने के तो दस पैसे ही लेता था पर कभी-कभार किसी दोस्त के लिए 'एडजस्टमेंट' करने के चक्कर में 'दस्सी' ज्यादा रखनी पड़ती थी.
चंडीगढ़ जैसे बसते हुए शहर में उन दिनों मनोरजन के साधन बहुत नहीं थे. मनोरंजन के नाम पर लोग सुखना झील या रोज़ गार्डेन में घूमते थे या बहुत हुआ तो सेक्टर 17 के नीलम, जगत या 'केसी' सिनेमा में 'त्रिशूल', 'मुक्कदर का सिकंदर' या 'कुर्बानी' जैसी फिल्म देखने के लिए टिकेट मिल जाने की किस्मत आजमाने चले जाते.
रही बात बच्चों की तो, स्कूल के बाद का दिन तो शरारतों के लिए ही कम पड़ता था. हाँ, गर्मी की छुटियों में दिन काटना समस्या थी. उन दिनों टेलीविजन के प्रोग्राम के नाम पर भी शाम को चित्रहार और रविवार की सुबह 'स्टारट्रेक' ही आता था. दिन में घर से बाहर निकलकर कंचे खेले जा सकते थे, लेकिन उसके लिए इजाज़त लेने के लिए कहते ही एक 'स्टेनडर्ड' जवाब सुनना पड़ता था कि 'कोई और बच्चा नज़र आ रहा है बाहर?' ऐसे में बाईस्कोप वाले की आवाज़ बड़ी राहत देती थी की इस बहाने सब बच्चे बाहर आ जायेंगे और स्कीम बना लेंगे कि आधे घंटे बाद बारी-बारी से सभी के घर जाकर गुजारिश करनी है कि-'आंटी, इसे भेज दो खेलने..'
लिहाजा, बाईस्कोप से बचपन का जो नाता जुड़ा उसे मैं या उन दिनों मेरी उम्र के बच्चे ही महसूस कर सकते हैं. वक़्त के साथ शहर बदला, शहर का जियोग्राफिया, शहर के बाशिंदे और उनकी जरूरतें. शीशे के कमरे वाले दफ्तर हैं जहाँ से बाहर की आवाजें मुज तक नहीं पहुँचती. लैपटॉप पर काम करते हुए वर्ल्डस्पेस रेडियो पर में 'कुर्बानी' फिल्म का 'नसीब इंसान का चाहत से संवरता है..'सुनते हुए अचानक मैंने बाहर देखा तो यकीन नहीं हुआ, एक बाईस्कोप वाला सामने के पेड़ के नीचे खडा था, अब इसे कहाँ से मेरी याद आ गयी तीस साल बाद..!!!
मैं फ्लेशबैक में चला गया..गर्म दोपहरियों में वो सुनसान गलियों में दौड़ते आते बच्चों का एक 'सेपिया कलर' की कुछ सेकंड की फिल्म. भागते बच्चे कचनार के पेड़ के नीचे खड़े बाईस्कोप वाले के इर्द-गिर्द जमा हैं, कुछ अपनी बारी के इंतज़ार में. कुछ बारी पक्की करने के लिए हथेली में 'दस्सी' का सिक्का पहले ही बाईस्कोप वाले को देने के लिए उछलते हुए..और कुछ 'अडजस्टमेंट' करते हुए बारी-बारी से बाईस्कोप के भीतर झांकते हुए..!!
..कहीं यह बाईस्कोप वाला हमें तो नहीं ढूंढ रहा,?? मनीष, नीरज, केनेथ डी' सूज़ा...जल्दी आओ, वो आ गया है..!! मनीष न्यूयार्क में, नीरज होंडा मोटर्स का जीएम्, केनेथ मेलबोर्न में...!!! तभी मोबाईल पर घर से फोन- पापा, मैं बाहर खेलने जाऊं??' और मेरा जवाब-'बेटा, और कोई बच्चा नज़र आ रहा है बाहर?'''

Tuesday, October 6, 2009

वो जब याद आये, बहुत याद आये...





चंडीगढ़ प्रशासन को भी आज इस शहर का नक्शा बनाने वाले आर्कीटेक्ट ली कर्बुजिये बहुत याद आये. सेक्टर 19 में उनकी डिजाइन की चीजों को इकट्ठा करके बनाए गए ली कर्बुजिये सेंटर में उनकी ढेर सारी फोटो, उनके लिखे ख़त और बंजर ज़मीन पर एक शहर को बसाने का अक्स खींचते कार्बुजिये और उनकी टीम के लोगों के कुछ बेहद दुर्लभ फोटो.
आज यानी 6 अक्टूबर को उनका जन्मदिन होता है. इसके चलते आज कार्बुजिए सेंटर में रौनक थी. पत्रकार लोग आये हुए थे. इधर-उधर की फोटो खींचते हुए. किसी एक्सक्लूसिव स्टोरी की खोज में. किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि कार्बुजिये का जन्मदिन का महत्व इस शहर की पुरानी तस्वीरों को देखकर आज के शहर के हालातों के साथ जोड़कर देखने के बाद ही है. आज इस शहर की जो हालत हो गयी है, शर्तिया तौर पर कार्बुजिये ने ऐसा शहर बसाने का नक्शा नहीं खींचा था.
खैर, सेंटर में लगाई प्रदर्शनी में कुछ रोचक जानकारी मिली. कुछ दुर्लभ फोटो देखने को मिले जिन्हें आप भी देख सकते हैं इस पेज पर. इनसे पता चलता है कि कार्बुजिये कितने जिंदादिल और दूरदर्शी थे. शिवालिक की पहाडी की तलहटी में खड़े बंजर ज़मीन के टुकड़े पर पर एक खुशहाल शहर को देख पाना आम इंसान की सोच से परे की बात होती है.
कार्बुजिये को 1952 में चंडीगढ़ बसाने का जिम्मा मिला था और वे अपने चचेरे भाई पिएरे जेनरे के साथ यहाँ पहुंचे थे. एक और रोचक बात कार्बुजिये के बारे में जानने को मिली और वह यह कि वे 'स्विस' थे जन्म से, न कि 'फ्रेंच' जैसा कि उनके बारे में प्रचलित है. उनका जन्म स्विटजेरलैंड में 1887 में हुआ था और उनका असली नाम 'चार्ल्स एडवर्ड जेनरे' था. उन्होंने पहला काम उनका खुद का ऑफिस बनाने का किया था जहाँ आज यह कार्बुजिये सेंटर बना हुआ है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु प्रोजेक्ट चंडीगढ़ को देखने 3 अप्रैल 1952 को चंडीगढ़ आये थे. उसके बाद उन्होंने सचिवालय बनाया और उसी दौरान उनके चचेरे भाई पिएरे जेनरे ने एसदी शर्मा और एम्एन शरण के साथ मिलकर अस्पताल, सेक्टर 22 की डिस्पेंसरी और सरकारी मकान बनाए.
एक और बात जो मुझे आज पता चली और वह भी सेंटर के इंचार्ज वीएन सिंह से. उन्होंने मुझे दो चित्थिआं दिखाई. एक वह जो नेहरु ने पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार परताप सिंह कैरों को लिखी थी जिसमे उन्होंने कहा था कि सुखना झील के पास कैंटनमेंट बनाने का प्रस्ताव रद्द कर दें क्योंकि यह कार्बुजिये को पसंद नहीं था. नेहरु ने लिखा कि ' कार्बुजिये का सुझाव कीमती है'. दूसरी चिट्ठी कार्बुजिये की लिखी है जो उन्होंने पंजाब के गवर्नर सीपीएन सिंह को 15 जुलाई 1954 को लिखी थी. इसमें कहा गवर्नर हाउस बनाने पर लगा उनका खर्च और वेतन जारी करवा देने को कहा गया है. जाहिर है, भारतीय लाल फीताशाही का मजा कर्बुजिये ने भी चखा था .
पता यह चला है कि कार्बुजिये कि लिखी इस चिट्ठी पर कारवाई हुयी थी और सरकारी खजाने से पैसा भी जारी हुआ लेकिन उसे कौन ले गया, इसके बारे में किसी के पास कोई जानकारी नहीं है.
महान आर्कीटेक्ट कार्बुजिये के जन्मदिन की बधाई.

Monday, June 29, 2009

छोटी सी यह दुनिया, पहचाने रास्ते हैं तुम...



...कहीं तो मिलोगे.....बिलकुल यही हुआ मेरे साथ. बीते रविवार शिमला के इंदिरा गाँधी मेडिकल कालेज के 'बी ब्लाक' से निकलते ही मेरी नज़र पड़ी इस पर, जिसकी फोटो आप देख रहे हैं, इस पन्ने पर. यह मेनहोल का ढक्कन है और मेनहोल पर ही लगा हुआ है. लेकिन सही जगह पर नहीं है. यह खिसक कर अपनी असली जगह से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर आ गया गया है. असल में यह मेनहोल का यह ढक्कन चंडीगढ़ का है और चंडीगढ़ का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजिये ने शहर की गलियां डिजाइन तो की ही, शहर के मेनहोलों के ढक्कन भी डिजाइन किये. शहर में मेनहोलों पर अब भी यही ढक्कन नज़र आते हैं. यह ढक्कन शुद्ध लोहे का बना है और पूरे चालीस किलो का है. पुराने शहर में तो हैं ही, नए सेक्टरों में इनकी जगह सीमेंट के बने ढक्कन लगाए जा रहे हैं. जिसका कारण है कि अब शहर चलाने वाले अफसरों को मेनहोलों पर चालीस किलो के 'डिजाईनर' ढक्कन लगाने पैसे कि बर्बादी लगने लगी है. पुराने सेक्टरों में से चोरी हो गए लोहे के इन ढक्कनों की जगह अब सीमेंट के ढक्कन लगाए जा रहे हैं.
आप यह जानकार हैरान होंगे कि शहर की पहचान इन ढक्कनों की कीमत के बारे में दुनिया भर की खबर रखने वाले यहाँ के अफसरों को तब पता चला जब विदेश से खबर आयी कि शहर के मेनहोलों के ढक्कन चोरी हो कर विदेशों में आठ लाख रुपये में बिक रहे हैं. कला के पारखी और आर्किटेक्चर के दीवानों ने इन ढक्कनों को मुंह मांगी कीमतों पर खरीदा हैं. इसके बाद नींद से जागे अफसरों ने मेनहोलों से चोरी हुए दर्जनों ढक्कनों की चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई. बताया जा रहा है कि आठ लाख के मेनहोल के ढक्कन बिकने की खबर छपने के बाद एक ही रात में पूरे मोहल्ले के ढक्कन चोरी होने के मामले भी हो गए.
इन ढक्कनों के बारे में यह जानना भी रोचक होगा कि इन ढक्कनों पर चंडीगढ़ का पूरा नक्शा बना हुआ है. ढक्कन
के उपरी हिस्से में बीच से दायीं तरफ जाती दो लाईनें असल में सुखना झील को सींचने वाली बरसाती नदी है और इन लाईनों के खत्म होने पर बना त्रिकोण सुखना झील है. नीचे चकोर खाने शहर के सेक्टर हैं और उसी 'पैटर्न' पर बने हैं जिसपर शहर के सेक्टर बसे हुए हैं, उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर यानी ढक्कन पर बने नक्शे के हिसाब से ऊपर से पहले दायें और दायें से फिर बाएँ. कहा तो यह भी जाता था कि इन ढक्कनों को इस तरह डिजाइन किया गया था कि शहर के सारे मेनहोलों के ढक्कन एक ही दिशा यानी सीधे ही फिट हो सकते थे. हालांकि मुझे ऐसा देखने को नहीं मिला.
खैर, कार्बुजिये की इस सोच को शहर की पहचान बनाने वाले इन ढक्कनों को अब चंडीगढ़ प्रशासन ने 'मोमेंटो' करार दे दिया है. सुखना झील पर सरकारी दूकान से ढक्कन से 'रेप्लिका' ख़रीदा जा सकता है. ली कार्बुजिये की याद में बनाया गया कर्बुजिये सेंटर से भी चंडीगढ़ की निशानी के तौर पर लोग खरीद रहे हैं और दूसरे शहरों में लेकर जा रहे हैं. लेकिन फिर भी मुझे यह बात समझ नहीं आ रही कि चंडीगढ़ के मेनहोल का ढक्कन शिमला के अस्पताल में कैसे लग गया??

Saturday, June 13, 2009

लहरों की तरह यादें, दिल से टकराती हैं...


पता नहीं क्यों बोटनी, यानी वनस्पति विज्ञान (जिसे 'इन्टेलीजेंसिया इग्नोरेंस' से ग्रसित मुझ जैसे विद्यार्थी घास-पत्ता विज्ञान कहते थे) बहुत ही आसान विषय लगती रही है. चंडीगढ़ के सरकारी कालेज में 10+1 के मेरे सहपाठी जब बंद कमरे में फूलों के पत्ते तोड़-तोड़कर उनके नाम याद करने की जद्दो-जहद में लगे होते थे, मैं खिड़की से नज़र आने वाले प्रिंसीपल के दफ्तर के सामने के घास के मैदान में लम्बी हो गयी घास के साथ झूमते गेंदे के फूल देखता तो मुझे बाहर अक्टूबर महीने की नर्म होती धूप बाहर आने का इशारा करती. और जिस दिन मुझे पता चला कि कालेज में क्लास से उड़नछू हो जाने पार कोई ख़ास पाबंदी नहीं होती और बाद में मिन्नतें करके 'लेक्चर अटेंडेंस' पूरी करवाई जा सकती है तो मैंने क्लास से बाहर जाकर ही बोटनी पड़ने का फैसला कर लिया. क्लास बंक करने के पहले दिन मैं अपनी साईकिल उठाकर सीधा झील पर जा पहुँच.
सुखना झील. चंडीगढ़ की निशानी और मेरे भीतर कवि को जनम देने का आरोप इसी झील पर जाता है. कितने ही दिन मैंने कालेज से बाहर इस झील के पिछले किनारे पर सर्दियों की धुप में बैठे-बैठे, या झील के पीछे दूर तक फैले जंगल में पेड़ों का नाम रखते हुए और सन्नाटे में सूखे पड़े पत्तों पर चलने की आवाज़ सुनते हुए गुजार दिए, इसका हिसाब मेरे पास नहीं था, कालेज में बोटनी पढाने वाली लेक्चरर के पास था. दोस्तों का कहा भी सच हो गया कि मिन्नतें करने से लेक्चर अटेंडेंस पूरी हो जाती है. दो साल में सरकारी कालेज से सम्बन्ध छूट गया, लेकिन सुखना झील के साथ जुड़ा सम्बन्ध आज भी कायम है. झील के बीचों-बीच बने 'वाच टावर' के पास से पानी में उतरने वाली सीढियों पर साईकिल फेंक कर पानी के पास वाली आखिरी सीढ़ी पर 'बैठे रहें तस्व्वुरे जाना किये हुए' की तर्ज़ पर लहरें गिनते रहने के दिनों की यादें आज भी साथ हैं, लेकिन अफ़सोस हैं कि सुखना अब वैसी नहीं रही.
सुखना अब सूख रही है. पानी का स्तर कम होता जा रहा है. झील में पानी लाने वाली बरसाती नदी ' सुखना चो' के साथ आती जा रही मिट्टी ने झील को उथला कर दिया है. हालांकि प्रशासन सरकारी तौर पर की जाने वाली औपचारिकता पूरी करता है, लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा. हर साल की तरह इस बार भी लोग झील के सूख गए हिस्से से मिट्टी निकालने के अभियान 'श्रमदान' करने आये तो लेकिन गिनती भर के. सरकारी तौर पर एक आध मशीन झील के पिछले हिस्से में से सूखी गाद निकालने के काम में लगी हुई है, लेकिन लगता है, सुखना के साथ इस शहर के लोगों का मोह ख़त्म हो गया है. नयी आबादी, 'जेन नेक्स्ट' जवान हो गयी है, जिसके पास अभी वर्तमान है, यादें नहीं हैं.
मुझे याद आता है कैसे 1989 में सुखना झील को सूखने से बचाने के लिए 'श्रमदान अभियान' चलाया गया था. चंडीगढ़ प्रशासन के सलाहकार आईऐएस अधिकारी अशोक प्रधान ने इसे शुरू किया था. अप्रेल कि 18 तारीख को शुरू हुए अभियान में मिट्टी खोदकर टोकरे में भर कर बाहर फेंकने वालों में अशोक प्रधान सबसे आगे हुआ करते थे. और सरकारी अफसरों की तरह एक दिन नहीं, हर रोज, लगभग एक महीने तक. उनके चक्कर में प्रशासन के बाकी अफसरों को भी आना पड़ता था, चाहे मन मारकर ही. और जब लोगों ने देखा कि अफसरों से अनोपचारिक तरीके से मिलने का यह तरीका अच्छा है, तो वे भी आने लगे. लोगों का उत्साह देखकर प्रशासन से 'श्रमदान' को सालाना अभियान बना दिया गया. इस अभियान के लिए लोगों के जनून का आलम यह था कि चंडीगढ़ के हर सेक्टर से श्रमदान करने जाने वालों को सुबह साढ़े पांच बजे झील तक मुफ्त बस सेवा मिलती थी. बसों के आगे बोर्ड लगा हुआ हुआ होता था-'श्रमदान स्पेशल'. ऐसी ही एक बस के नीचे कुचले जाने से एक स्कूली बच्चे की मौत हो गयी थी जिसकी याद में एक ट्राफी शुरू कि गयी. और तो और ब्रिटिश एयरवेज़ ने बेहतरीन श्रमदानी के लिए मुफ्त हवाई यात्रा तक का इनाम रखा.
बाद में अफसर बदले, नए अफसरों को सुबह पांच बजे ही गर्मी लगने लगती है और एसी से बाहर नहीं निकल पाते. फिर ऐसी जगहों पर 'आम आदमी' से हाथ मिलाना और बात करना पड़ सकता है, सो इस अभियान में रूचि भी कम होने लगी. धीरे धीरे बिलकुल ही खतम जैसी हो गयी है.
असल में पिछले कुछ सालों के दौरान झील में पानी का स्तर पांच मीटर से घटकर सिर्फ दो मीटर रह गया है और इसका कुल क्षेत्रफल भी 230 हेक्टेयर से कम होकर 154 हेक्टेयर रह गया है. झील को सींचने वाली नदी में पौने दो सौ से अधिक टैंक बनाने के बावजूद झील में बहकर आने वाली गाद को रोकने के सरे प्रयास नाकाम हो गए हैं. सुना था कि प्रशासन ने एक बार 73 करोड़ रुपये की एक योजना बनायी थी झील को सूखने से बचाने के लिए, लेकिन अफसरशाही ने ही फाईलें रोक ली. ड्रेजिंग कारपोरशन ऑफ़ इंडिया से भी कहा, लेकिन हुआ कुछ नहीं.
अब हालत ऐसे हैं कि झील में पानी इतना कम हो गया है कि किश्तियाँ पानी में फंस जाती हैं, पानी कम हो गया है, लहरें नहीं उठती. यादें भी सूखती जा रही है. मेरी भी और देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु की भी, जिन्होंने इस शहर का नक्शा बनाने वाले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बुजिये को ख़ास तौर से चिट्ठी लिखकर शहर में एक झील बनाने की गुजारिश की थी. और इस झील के बारे में यह जान लेना भी रोचक होगा कि यह देश कि एकमात्र मानव निर्मित झील है जिसे 'नॅशनल वेटलैंड' का दर्जा हासिल है और हर साल अक्टूबर से मार्च तक सैकडों प्रवासी परिंदे यहाँ आते हैं. कहीं ऐसा न हो कि इन परिंदों का आना भी यादों में ही रह जाए.

Thursday, April 23, 2009

न उड़ा यूं ठोकरों से मेरी ख़ाक-ऐ-कब्र....







ख़ुशी इस बात से हुई कि पिछले दिनों चंडीगढ़ प्रशासन ने सेक्टर 19 में बनी उस पुरानी बिल्डिंग का हुलिया बदलकर उसे चंडीगढ़ का नक्शा बनाने वाले आर्किटेक्ट ली कार्बुजिए के नाम पर रख दिया और उस महान नक्शा नवीस की डिजाइन की हुई चीज़ें सजाकर रख दी हैं। इसी बिल्डिंग में कार्बुजिए ने मेज-कुर्सी लगाकर चंडीगढ़ के नक्शे की पहली आड़ी-तिरछी लाइनें खिंची थी।
ऐसी लाईनें खींचने से भी पहले कार्बुजिए ने इस बिल्डिंग का नक्शा बनाया और शिवालिक की पहाड़ियों तले बसने वाले इस शहर की पहली बिल्डिंग बनायी। एक मंजिला इस भवन में कई साल कई तरह के सरकारी दफ्तर चलते रहने के बाद इसे अब जाकर कार्बुजिए के नाम किया गया है. इसमें वह सब सामान जमा किया गया है जो कार्बुजिए ने डिजाइन किया. इसमें कुर्सियां-मेज से लेकर शहर के हर मेनहोल पर रखे ढक्कन तक को रखा गया है.
शुक्र है, प्रशासन को शहर के साठ साल के इतिहास को सँभालने की सुध आ गयी है। वह भी शायद तब जब अखबारों में ऐसी खबरें छपी कि चंडीगढ़ के किसी गट्टर से चोरी हुआ मेनहोल का ढक्कन लन्दन में आठ लाख का नीलाम हुआ। तीस किलोग्राम शुद्ध लोहे का बने ढक्कन कि चोरी कि रिपोर्ट तक प्रशासन ने कभी दर्ज नहीं कराई थी। वैसे कला के पारखी कबाडियों के जरिये शहर के आधे से ज्यादा मेनहोल के ढक्कन ठिकाने लगा चुके हैं। आठ लाख रूपये में मेनहोल का ढक्कन नीलाम होने के खबर छपते ही प्रशासन ने ली कार्बुजिए सेंटर का उदघाटन कर दिया। खैर इस से इस बिल्डिंग का भला हो गया जो कितने सालों से खस्ता हाल पड़ी थी और गिरने और कगार पर आन पहुंची थी।
शहर बसने और कुछ निशानियों में से एक इस बिल्डिंग के बारे में मैंने कुछ लोगों से बात और पाया कि जंगलों के बीच शहर की पहली बिल्डिंग के लिए उस जगह का चुनाव क्यों किया गया जो आज का सेक्टर 19 है।
असल में चंडीगढ़ बसने से पहले यहाँ एक छोटा सा पड़ाव था जहाँ पंजाब के रोपड़ से सड़क उन दिनों के मेन शहर कालका जाती थी। इस सड़क पर तीन बड़े पड़ाव थे। पहला आज के सेक्टर 22 में सिमटकर रह गयी छोटी सी सब्जी मार्केट जो बजवाडा के नाम से जानी जाती थी। आज भी पुराने लोग इस पूरे इलाके को ही बजवाडा के नाम से जानते हैं।
दूसरा पड़ाव सेक्टर 19 में नगला नाम का गाँव था। जिसकी हद आज के सेक्टर 17 में स्थित बस अड्डे तक फैली हुई थी। बस अड्डे में लगा बड़ा सा पीपल का पेड़ उस गाँव के बड़े कुँए के पास लगा था। कुँआ तो नहीं रहा, अलबता पीपल अभी है, पता नहीं कब तक रहेगा। नगला गावं सेक्टर 19 में एक कनाल का प्लाट भर रह गया है। जहाँ आज भी बाहर लगा बोर्ड देखा जा सकता है जिसपर लिखा हुआ है "प्राचीन नगला"। अब यहाँ एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। (गेट वाला फोटो देखें)
तीसरा बड़ा पड़ाव मनीमाजरा इलाके में पीपलीवाला अड्डा था जो आज के पीपलीवाला टाऊन के घरों के नीचे कहीं दफन है। अब बात करते हैं, सेक्टर 19 में ही ली कार्बुजिए की पहली बिल्डिंग बनाने के ख्याल की बात। असल में शाम को जो बस रोपड़ से चलकर कालका जाती थी वह पहले बजवाडा, फिर नगला और फिर मनीमाजरा रूकती थी। चंडीगढ़ प्रोजेक्ट में लगी टीम दिनभर यहाँ जंगलों में काम करती थी और शाम को कालका चली जाती थी जो उन दिनों शिमला से पहले का सबसे बड़ा बाज़ार भी था। चंडीगढ़ बसाने वाली टीम से जुड़े कुछ लोग बताते हैं की किस तरह दिनभर के काम के बाद लोग बजवाडा के बाज़ार से जरूरत का सामन, खासकर फल-सब्जियां खरीदते थे और रोपड़ से कालका जाने वाली बस पकड़कर चले जाते थे। सो, यही जगह सबसे सही थी।इसी बिल्डिंग में शहर का पहला अस्पताल भी चला. जंगल में काम करने वालों को जंगली कुत्तों और बंदरों के काटने के कारण रेबीज़ हो जाने का खतरा रहता था. ऐसे लोगों के लिए कसौली में बसे सेंट्रल सीरम इंस्टीट्युट-सीआरआई- से वेक्सिन आती थी. बताते हैं कि शाम को कालका जाने वाली बस के साथ ही अगले दिन आने वाली वेक्सिन का आर्डर भी भेज दिया जाता था. और अगले दिन उतनी ही वेक्सिन आ जाती थी, क्योंकि जंगल में फ्रिज तो थे नहीं वेक्सिन रखने के लिए. सो, कसौली से आने वाली पहली बस से ही वेक्सिन आ जाती थी और लोग उससे पहले ही खड़े होते थे लाइन बनाकर पेट में सुए लगवाने के लिए. मैंने भी बचपन में पड़ोसियों के कुत्ते की मेहरबानी से इसी बिल्डिंग में चलने वाले एंटी-रेबीज़ क्लीनिक में सुए लगवाते हुए चीखें मारी हुई हैं. सो, यह भी एक कारण था सेक्टर 19 में प्रोजेक्ट की पहली बिल्डिंग और ऑफिस बनाने का. बाद में इस बिल्डिंग में जंगलात महकमे का दफ्तर भी बना जो आज भी है।
इस बिल्डिंग में आप शहर के बनने के दिनों का इतिहास देख सकते हैं. प्रशासन ने शहर के "हेरिटेज" को संभालने की सरकारी कोशिश की है. सरकारी इसलिए कि पंजाब युनिवेर्सिटी और कुछ और सरकारी महकमों के कबाड़ में पड़ी पुरानी कुर्सियां तो उठा लाये, लेकिन शहर कि असल नींव को बर्बाद कर दिया।
इस बिल्डिंग और इस सामान से भी पुरानी और "हेरिटेज" तो वह सड़क है जिसकी निशानियाँ आज भी कुछ सेक्टरों में बिखरी पड़ी है. उन्हें संभालना तो दूर, कई जगहों पर तो उसे उखाड़ दिया गया है. इस बिल्डिंग को सहेजने के साथ-साथ "ओल्ड रोपड़ रोड" के हिस्सों को भी धरोहर बना लेते तो शहर उसे निशानियाँ बच जाती. वैसे मनीमाजरा के लोग अब भी एक हिस्से को ओल्ड रोपड़ रोड कहते हैं और घर का पता भी मकान नम्बर फलां, ओल्ड रोपड़ रोड बताते हैं।
नहीं जानने वालों के लिए बता दूं कि बजवाडा से अरोमा होटल की और जाते हुए जो सौ मीटर का पत्थरीला रास्ता स्कूल की दीवार के साथ साथ गुजरता है, वह ओल्ड रोपर रोड की ही बची हुई ख़ाक है. यह हिस्सा आगे जाकर सेक्टर 21 के एक पार्क के बीचोंबीच गुजरता है. उसके ठीक ऊपर अब घर बन गए है. (फोटो में सड़क के ठीक ऊपर घर बना दीखता है।इस घर के पीछे भी सड़क का हिस्सा है ) आगे जाकर यह सड़क फिर कुछ नज़र आती है और निरंकारी भवन के पीछे बने पार्क में दिखती है. दुःख मुझे इस बात का हुआ कि सेक्टर 21 बी में ही एक पार्क के बीच से गुजरती इस सड़क की निशानियों को पार्क में घास लगाने के लिए उखाड़ फेंका गया।
काश, इस शहर के बसने की इन बजवाडा, मनीमाजरा और नगला जैसी निशानियों को भी ठोकरों से उड़ाने से बचा लिया होता. मुझे लगता है इस सड़क के कई हिस्से यही कह रहे हैं- "न उड़ा यूं ठोकरों से मेरी ख़ाक-ऐ-कब्र जालिम, यही ले दे रह गयी है मेरे प्यार की निशानी".

Thursday, March 26, 2009

गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता....















इन दिनों चंडीगढ़ में रंगों की बहार है. हर तरफ रंग भरी फिजाएं हैं. पेड़ों से रंग बरस रहे है। दुनिया का तो मुझे नहीं पता, लेकिन इतना जरूर है कि देश में दूसरा ऐसा कोई शहर नहीं है जहाँ गर्मी की शुरुआत इतनी रंगीन और हसीं होती हो। ऐसा लगता है जैसे बहुत सारे गुलमोहर एक साथ खिलखिलाकर हंस पड़े हों।
दरअसल, चंडीगढ़ में मार्च का महीना अपने आप में हसीं होता है। चंडीगढ़ में रहने वालों को तो नहीं पता, लेकिन बाहर से आने वाले देख सकते हैं कि शहर की सड़कें किस तरह रंगीन लबादे पहने खड़े पेड़ों के रंग में रंगी है। मार्च के महीने में शहर में दो तरह के बदलाव आते हैं। पहला, सडकों के किनारों पर लगे पेड़ों के इतने पत्ते झरते हैं कि सड़कें भर जाती हैं। इन पत्तों को उठाना एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
खैर, दूसरा बदलाव रोमानी होता है। पेड़ों के नए पत्ते निकलते हैं और एक ही महीने में कई रंग बदलते हैं। हल्के रंग के पत्ते निकलते हैं और कच्ची धूप के साथ रंग बदलते रहते हैं। हर रोज़ सडकों का रंग बदला हुआ मिलता है। रोज़ एक ही सड़क से गुजरकर जाने वाले भी हैरान होते हैं कि कल यहाँ किसी और रंग का पेड़ था, आज यह कहाँ से आ गया?
चंडीगढ़ में तीन किस्मों के पेड़ बहुत हैं। अमलतास, कचनार और गुलमोहर। गर्मियां आते ही यह तीनो चटक उठते हैं और महक देते हैं। सुखना झील के किनारे-किनारे करीब दो किलोमीटर लम्बे घास के मैदान के साथ-साथ चलती पगडण्डी पर लगे कचनार मार्च शुरू होते ही गुलाबी होने लगते हैं और अप्रैल आते-आते पत्तों की हरियाली छोड़कर पूरी तरह गुलाबी हो जाते हैं। इनकी छाया खत्म हो जाती है और सिर्फ रंग रह जाता है। हाँ, और एक रंग रह जाता है उसके तले। दुनिया की भाग-दौड़ से दूर अपनी ही दुनिया के रंग में खोये कई प्रेमी जोड़े आपको मिल जायेंगे इन कचनारों के नीचे बैठे। हालांकि कचनारों की छाया कम ही होती है, लेकिन प्यार में धूप का रंग भी गुलाबी लगता है।
शहर में अमलतास के पेड़ भी बहुतायत में हैं। शहर की पश्चिम से पूर्व की और जाने वाली सड़कों में से एक जन मार्ग के कई किलोमीटर लम्बे रास्ते पर अमलतास लगा है। गर्मी पड़ते ही अमलतास के पीले फूल ऐसे खिल उठते हैं कि रास्ता देखते ही बनता है। एक बात और; अमलतास के पेड़ों पर झींगुर रहते हैं जो सुबह होते ही बोलना शुरू करते हैं और शहर कि सुनसान दोपहरियों को रोमांटिक बना देते हैं। पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है कि उदय प्रकाश ने उनकी कहानी 'पीली छतरी वाली लड़की' किसी अमलतास के पेड़ के नीचे से गुजरते हुए ही सोची होगी।
अमलतास से ही मुझे करीब तीन दशक पुरानी बात याद आ गयी। बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ता था। तीसरी क्लास में। चंडीगढ़ के सेक्टर 21 ऐ में रहा करता था। मेरे घर के आगे की सड़क पर कचनार के पेड़ लगे थे और मैं कचनार की कलियों के गुलाबी रंग से अपना नाम दीवार पर लिखा करता था। अप्रैल के दिन थे। स्कूल की छुट्टियाँ थी। चंडीगढ़ में मेरा पहला क्लासमेट और दोस्त त्रिलोक ठकुराल था। वह सेक्टर 21 डी रहता था। उसके घर की कतार के आगे अमलतास के पेड़ लगे थे एक लाइन में। दूर तक। एक शाम मैं उसके घर चला गया और रात को वहीँ सो गया। हम दोनों ने फैसला किया कि हम घर के आगे वाले आँगन में गेट के पास बिस्तर लगा कर अमलतास के पेड़ के नीचे सोयेंगे। और अगली सुबह नींद खुलने पर मैंने पाया कि मैं जिस बिस्तर पर सो रहा था उसके ऊपर, मेरे चारों तरफ, पूरे आंगन में अमलतास के पीले रंग के फूल एक गोलाई में बिखरे थे। मैं बहुत देर तक यह सोच कर नहीं उठा कि मेरे उठने पर मेरे ऊपर और बिस्तर पर बिखरे पड़े फूल गिर जायेंगे। वह मेरे जीवन की सबसे सुंदर सुबह थी। अगर मुझे कोई एक अहसास फिर से महसूस करने का वरदान दे तो मैं वही सुबह मांगूंगा।
खैर, एक बात और बताना चाहूँगा चंडीगढ़ के बारे में। और वह यह कि चंडीगढ़ में इन तीन खूबसूरत रंगों के पेड़ों के अलावा तीन और अच्छे पेड़ों के झुरमुट हुआ करते थे जिनमें से एक शहर की भीड़ के तले कुचला गया। सेक्टर 29 में ट्रिब्यून चौक से लेकर सेक्टर 26 में ट्रांसपोर्ट लाईटों तक आम के हजारों पेड़ हैं। सरकारी हैं। इसे 'मैंगो ग्रूव' के नाम से जाना जाता है। इन्हें लगाने का कारण तो यह था कि पेड़ों के दक्षिण की तरफ के इंडस्ट्रियल एरिया की गर्मी और धुंआ इधर रिहायशी इलाके में न आये। दूसरा है, सेक्टर 22 ऐ में एक गोल सड़क के साथ साथ लगे नीम के बहुत से पेड़। बरसात के दिनों में निम्बोरी की महक दूर से ही महसूस की जा सकती है, बशर्ते, बचपन में आपने पककर मीठी हो गयी निम्बोरी खाकर देखी हों। एक और था ऐसा झुरमुट जो सेक्टर 20 से पूर्व दिशा में जाने वाली सड़क पर गोल्फ कोर्स तक लगाया गया था। वह था 'इमली अवेन्यु'। करीब पांच किलोमीटर लम्बे रास्ते पर इमली के सैकडों पेड़ थे। यह पेड़ उन दिनों लगाये गए थे जब शहर बस रहा था। और मकानों की कतारों की भूल-भुलैया में फंसने से पहले पहाड़ी हवा इन्हीं इमली के छोटे-छोटे पौधों के साथ लूका-मिची खेलती फिरती थी। पता नहीं बाद में इन्हें किसकी नज़र लगी। दीमक ने सैकडों पेड़ों को बर्बाद कर डाला। अब भी कुछेक पेड़ बचे हैं शहर के आबाद होने की यादें लिए। शुक्र है कचनार, अमलतास और गुलमोहर अभी बचे हैं और खिलखिला रहे हैं। शुक्र है इस हवा का भी जो गुलमोहर को हंसा रही है। मुझे किशोर कुमार का गाया एक गीत याद आ गया। 'गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसम-ऐ-गुल को हँसाना ही हमारा काम होता। '



Sunday, March 22, 2009

कुछ ख़ास है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...


अगर यह संयोग है, तो इससे बड़ा कोई संयोग नहीं हो सकता कि एक अत्याधुनिक शहर बसाने के लिए भवन निर्माण कला के जिस पश्चिमी मॉडल को 'लेटेस्ट' और 'साइंटिफिक' मना गया, उसकी जड़ें हजारों साल पुराने उस हिन्दू भवन निर्माण कला में हैं, जिसपर ज्योतिष विज्ञानं हावी है और पश्चिमी देश जिसे मान्यता तक नहीं दे रहे. अगर यह संयोग नहीं है, तो सच्चाई यह है कि चंडीगढ़ के आर्किटेक्चर की नींव ईंट-दर-ईंट वास्तुशास्त्र पर टिकी है. नहीं तो इतना बड़ा संयोग होना संभव ही नहीं है कि शहर के सारे कामयाब होटल सेक्टर 35 की एक ही लाइन में हों और कई अस्पताल होते हुए भी लोग सर्दी-जुकाम जैसी मामूली बीमारियों के इलाज के लिए पीजीआई में जमावडा लगाए रखें. और यह भी कि शहर का शमशान घात ठीक उसी दिशा में बन जाए जहाँ चन्दालिका वास मना जाता है. फिर यह भी संयोग मान लिया जाये कि वास्तुशास्त्र घर के जिस कोने में पानी रखने की सलाह देता है, शहर की वही दिशा झील बनाने के लिए उपयुक्त मान ली जाये. आज का चंडीगढ़ एक दिन में नहीं बना. पचास साल के दौरान शहर में एक-एक करके सेक्टर बने और उनमें आबादी बढ़ी. लेकिन आश्चर्य इस बात का होना चाहिए कि शहर का विकास वास्तुशास्त्र के बाहर नहीं जा पाया. लाख कोशिशें करने के बावजूद दक्षिणी सेक्टरों में जनसँख्या घनत्व रुक नहीं पा रहा. अगर इसका जवाब यह दिया जाए कि वास्तुशास्त्र के हिसाब से किसी घर या स्थान विशेष का दक्षिणी कोना रहने और सोने के लिए आरक्षित होता है तो शायद इस रहस्य को समझा जा सकता है कि क्यों दक्षिण मार्ग के पार बसे सेक्टरों में आबादी इतनी अधिक है और क्यों सेक्टर 48 और 49 के फ्लेट्स की मांग अधिक है. वास्तुशास्त्र ज्योतिषीय दृष्टि से किसी भी वस्तु को उसके तय स्थान और दिशा में स्थापित करने से सम्बंधित है. हालांकि बहुत से नक्शानवीस इस बात से सहमत नहीं होंगे कि फ्रांस जैसे देश के बाशिंदे कर्बुजिये को वास्तुशास्त्र का लेशमात्र भी ज्ञान था. लेकिन इतने बड़े शहर को बसाने के बनाया गया मास्टर प्लान अगर पूरी तरह वास्तुशास्त्र के नियमों पर फिट बैठे तो कम से कम इस बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि यह शहर विकास, तरक्की करने और फलने-फूलने के लिए ही बना है.वास्तुशास्त्र के नियम को अगर लें तो किसी भी नगर को बसाने के लिए एक ऐसे आयताकार भूखंड का चुनाव करना चाहिए जिसके उतरी दिशा में पहाड़ या पानी का बहाव हो. इसके बाद उस भूखंड के बीचोबीच एक दुसरे को काटती (कॉस्मिक क्रॉस) हुई दो लाईने खीचनी चाहिए जिनमे जिस एक लाइन भूखंड के आरपार होनी चाहिए. जिस स्थान पर यह लाईनें एक-दुसरे को काटती हों, वहां जन प्रतिनिधियों और प्रशासनिक स्तर के व्यक्तियों के कामकाज की जगह होनो चाहिए. चंडीगढ़ के बारे में यह नियम पूरे उतरते हैं. उत्तर दिशा में पहाड़ और पास में बहने वाली बरसाती नदी है. शहर के आरपार होता मध्यमार्ग और जन्मार्ग जिस स्थान पर एक दुसरे को काटते हैं, वहीँ सेक्टर 17 में एस्टेट ऑफिस, ड़ीसी ऑफिस और नगर निगम बना है. शास्त्रों में ऐसे स्थान पर ब्रह्मा जी का चार दरवाजों वाला मंदिर बनाए जाने की बात भी कही गयी है। वास्तु पुरुष मंडल सिद्धांत यह कहता है कि भूखंड या मकान के उत्तर में गृह स्वामी या उस व्यक्ति का आसन होना चाहिए जो महत्वपूर्ण और तर्कसंगत फैसले ले सके. अब इसे भी संयोग ही मान लिया जाए कि महत्वपूर्ण फैसले लेने की अथोरिटी हाईकोर्ट और विधान सभा इसी दिशा में बने हैं. बृहस्पति और केतु द्वारा नियंत्रित उत्तर-पूर्व दिशा को चिंतन और पानी रखने के लिए सर्वोत्तम माना गया है. इस दिशा में सुखना झील बनी हुई है. ज्योतिष विज्ञानं के मुताबिक बुध ग्रह शिक्षा और चिकित्सा को नियंत्रित करता है और भूखंड में उत्तर दिशा की प्रभावित करता है. वास्तुशास्त्र भी इस दिशा में विद्यालय या अस्पताल बनाने की सलाह देता है. इसी दिशा में बने यूनिवर्सिटी और पीजीआई अपने-अपने क्षेत्र में नाम रखते हैं और यह भी कि सेक्टर 32 में बड़ा अस्पताल और उसमें बराबर के डॉक्टर होने के बावजूद पीजीआई का रूतबा और ही है. यही गवर्नमेंट कालेजों के बारे कहा जा सकता है जो संयोगवश बुध के प्रभाव क्षेत्र में ही बने हुए हैं. सेक्टर 42 में लड़कियों के लिए और सेक्टर 46 में कामन गवर्नमेंट कालेज होने के बावजूद सेक्टर 11 के कालेजों में दाखिले के लिए मारामारी होती है. चंडीगढ़ के नक्शे के ऊपर अगर वास्तुपुरुष को रख दिया जाए तो कई आश्चर्यजनक तथ्य उभरकर सामने आते हैं. इससे पता चलता है कि सेक्टर 16 में बनाया गया रोजगार्डन ठीक उसी जगह पर आता है जहाँ वास्तुपुरुष के फेफडे हैं, यानी सांस लेने के लिए खुला स्थान. इसी तरह इस नक्शे के हिसाब से जहाँ सेक्टर 35 है, वह वास्तुपुरुष के पेट के हिस्से में और शायद यही कारण हैं कि इस सेक्टर में इतने होटल खुल गए हैं और सभी कामयाब हैं. वास्तुपुरुष यह भी बताता है कि चंडीगढ़ के आर्किटेक्चर के संभंध में यह भी तथ्यपरक है कि शहर का इंडस्ट्रियल एरिया दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थान पर है जो बृहस्पति नियंत्रित है और अग्नि है सम्बंधित है. और यह भी कि उत्तर-पश्चिम दिशा, जिसे शास्त्र गौशाला के लिए उपयुक्त मानते हैं, में ही धनास की वह मिल्क कालोनी बन गयी है जिसके लिए कोई प्लान लेआउट नहीं था. और इन सब तथ्यों के बावजूद अगर यह न मन जाए कि चंडीगढ़ का नक्शा वास्तुशास्त्र पर टिका हुआ नहीं है, तो फिर इस बात पर जोर दिया जा सकता है कि कर्बुजिये ने चंडीगढ़ का नक्शा बनाने के लिए छ फ़ुट दो इंच के हाथ उठाए हुए जिस काल्पनिक व्यक्ति के दायरे को इकाई माना है, वास्तुपुरुष का आकर भी ठीक उतना ही है.

Thursday, March 19, 2009

रौशनी है शराबखानों की........


शहर-ए-चरागाँ में अब ए दोस्त, रौशनी है शराबखानों की...
असल में अब यही हाल है इस शहर का जिसकी गलियाँ चमचमाते दुधिया रंग की रौशनी से लबरेज रहती थी। पचास साल पहले बसाए गए इस शहर की सड़कों के दोनों किनारों पर लगे तेज रौशनी देने वाले बल्बों ने कभी अँधेरा नहीं होने दिया।अँधेरा अब भी नहीं है, फर्क सिर्फ इतना है कि अब शहर भर में सड़कों के किनारों पर शराब के इतने ठेके और शराबनोशी के इतने ठिकाने खुल गए हैं कि उनकी रौशनी ने शहर भर कि सड़कों को रोशन कर रखा है।
यकीन करना पड़ेगा कि चंडीगढ़ शहर कि हद में मौजूद ठेकों, आहातों, बारों और पबों कि तादाद इतनी हो गयी है कि रकबे के हिसाब से ही आधे किलोमीटर पर एक ठेका है.सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि शहर चलाने वालों की इस दारु-दरियादिली का नतीजा है कि शहर के बाशिंदों के मुंह को नशा लग गया है. गुजिश्ता एक साल के भीतर ही शहर में बियर कि खपत में पांच सौ गुणा इजाफा हुआ है. इस लिहाज से चंडीगढ़ ने प्रति व्यक्ति बियर कि खपत के मामले में दिल्ली और मुंबई को भी पीछे छोड़ दिया है. आंकडेबाजी के नजरिये से शहर का हर आदमी 4.64 लीटर बियर गटक रहा है. दिल्ली में यह आंकड़ा 3.69 और मुंबई में 3.33 है. देश में प्रति व्यक्ति बियर की खपत 0.82 लीटर है।
सरकारी आंकडों का यह भी कहना है कि साल 2005-06 के दौरान शहर में बियर की करीब डेढ़ लाख पेटियां बिकी थी जो उससे अगले साल बढ़कर सवा सात लाख हो गयी थी. इस साल इस में और भी इजाफा हुआ है. बहरहाल, हालात यह हैं कि इस वक़्त शहर की म्युनिसिपल्टी के 144 किलोमीटर के दायरे में 192 ठेके, 100 आहाते, 90 बार, पांच क्लब जिनके पास दारु परोसने का लाइसेंस है, लोगों को नशे की ओर खींचे रखने के काम में जुटे हैं. इस लिहाज से शराब मिलने के कुल ठिकानों और शहर के रकबे को तकसीम किया जाए तो हर आधे किलोमीटर पर एक ठेका है. जाहिराना तौर पर इतने सारे ठेकों की रौशनी की जगमगाहट तो होगी ही।
कुछ तरक्कीयाफ्ता लोग इसकी तारीफ़ कर रहे हैं कि लाट साहब जनाब गवर्नर एसएफ रोड्रीग्ज़ ने शहर को गोवा बना दिया जहाँ फैशनेबल लोग अपनी फैमिली के साथ बैठकर शराब पीते हैं और औरतें-लड़कियां शर्म-लिहाज और फैशन के नाम पर रैड वाइन पीती हैं, जिसे पीने में कोई हर्ज़ नहीं समझा जाता. इधर, शहर में बड़ी तादाद ऐसे नौकरीपेशा लोगों की भी है जो सरकारी बाबूगिरी की तरह ही सामाजिक जिम्मेदारियां, नैतिकता और संस्कृति से बंधे हैं और रोज सुबह मंदिर जाने और रास्ते में खुल गए एक ठेके वाले को जहन्नुम में भी जगह नसीब नहीं होने की दरियाफ्त करते हुए दिन की शुरुआत करते हैं. इस वर्ग को लगता है कि लाट साहब को खुश करने के चक्कर में प्रशासन शहर को क्रिस्तानी बनाने पर तुला हुआ है. इन लोगों के लिए क्रिस्तानी और कारस्तानी पर्यायवाची बन गए हैं. सेक्टर 37 में रहने वाले जतिंदर शर्मा इनमें से एक हैं. इनका कहना है कि शहर भर में शराब के ठेके खुलने के बाद उन्हें ऐसा महसूस हो रहा है जैसे धर्म और आस्था से जुडे लोगों का इस शहर से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है. उनका सवाल है कि क्या इस तरह हर मोड़-नुक्कड़ पर ठेके खोलने से पहले नहीं पीने वालों की भी कोई राय ली गयी?
खैर, हालत यह है कि सेक्टर 17 और 22, दो ही सेक्टरों में ठेके-आहातों की तादाद 23 हो गयी है. इसी तरह मध्यमार्ग पर पंचकुला बॉर्डर तक दस और दक्षिण मार्ग पर आठ ठेके खुल गए हैं. प्रशासन ने कमर्शियल, इंडस्ट्रियल एरिया और झुग्गी-बस्तियों में ठेकों की तादाद तय करने वाला क्लाउस भी हटा लिया ताकि मजदूर और दिहाड़ीदार दिनभर खट्टें और शाम को हरारत उतारने और गम भुलाने तरह लिए ठेकों पर फूंक दें दिनभर की कमाई. और फिर बीमार होने पर सरकारी अस्पताल तो हैं ही. शराब पीने से गुर्दा-जिगर खराब होने पर इलाज का जिम्मा भी सरकार तरह सर. सेक्टर 15 का एक दुकानदार शराब पीकर लीवर खराब कर बैठा, अब दाखिल है फोर्टिस अस्पताल में. करीब 15 लाख रुपये लग गए है।
शराब पीने की बढती प्रवृति के कारण को शराब का आसानी से उपलब्ध होना भी माना जा रहा है. शाम को दफ्तर से निकलते ही सामने ठेका, मन मारकर निकल भी गए तो घर तक पहुँचते न पहुँचते दस ठेके-आहाते मिल जायेंगे. कहाँ तक बचेंगे शराब पीकर मर्द बनने को उकसाती अधनंगी लड़कियों के बैनर-पोस्टरों से. शराब छुडाने वाली संस्था अल्कोहलिक अनोनिमस से जुडे अनिल कौडा का मानना है कि शराब छोड़ने की इच्छा रखने वाले किसी भी व्यक्ति के प्रयासों को प्रशासन के ऐसे कदम से नुक्सान ही होगा. शराब पीने वाले की बजाय शराब छोड़ चुके व्यक्ति से पूछिए कि इतने ठेके खोलकर प्रशासन राजस्व के बीस करोड़ अधिक कमा भी लेगा लेकिन कितनी जिंदगियों में अँधेरा डाल देगा.

Saturday, March 14, 2009

फिज़ा के भेस में गिरते हैं पत्ते चिनारों के....


'कुछ तो तेरे प्यार के मौसम ही रास मुझे कम आये, और कुछ मेरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी'।
पत्थरों के इस शहर में कुछ ऐसी ही रोमानियत लाने के लिए शायद इस शहर के नक्शानवीस ने सड़कों के किनारों पर ऐसे दरख्त लगाने की ताकीद की थी जिनके पत्ते झरते हों....
पर यह सब उन लोगों के लिए था जो सूखकर झरे या झरकर सूखे पत्तों में भी खूबसूरती देख पाते, सुर्ख दोपहरियों में जब शहर के रास्ते सुनसान हो जाते हों तो इन्हीं सूखे चरमराते पत्तों पर चहलकदमी करते हुए गुजर गए खुशनुमा माहौल को याद करने का वक़्त निकाल पाते और याद कर पाते कि इन्हीं सूख कर झर गए पत्तों के साथ इस शहर में बहने वाली हवा सरगोशियाँ किया करती थी।बहरहाल, रोमानियत से बाहर आकर मेट्रोपोलिटन बनते जा रहे इस शहर के मौजूदा हालातों और बाकी दुनिया की तरह तेज रफ़्तार जिंदगी की अंधी दौड़ में शामिल हो चुके यहाँ के बाशिंदों की बात करें, तो शायद यहाँ की आधी आबादी भी इस बात से अनजान होगी कि इस शहर के हर गली-नुक्कड़ पर लगे आज के पेड़ों को रोपने से पहले फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कर्बुजिये ने उस पौधे की जात-नस्ल को अच्छी तरह जाना था. और यह ख़ास तौर पर जाना था कि किसी मौसम में हवा का रुख और मिजाज़ क्या रहता है, और कौन से वे पेड़-पौधे हैं रात भर में ही पुरवाई से पच्छ्वा बन जाने वाली हवा कि इस रंग बदलने की फितरत को बर्दाश्त नहीं कर पाते और रातभर में ही मारे शर्म के झर जाते हैं। इस शहर की सड़कों के किनारे लगे पेड़ इस बात के गवाह हैं की शहर बसाने की सोच में यह भी शामिल किया गया था कि पेड़ों की किस्मों और हवा के रुख को टकराने नहीं दिया जाए। यही सोच 'ऑटो स्वीप' नाम की तकनीक बनकर उभरी। इस तकनीक में हवा चलने की दिशा और पेड़ों के पत्तों के गिरने के मौसम को 'सिंक्रोनाईज़' किया गया था ताकि बहती हुयी हवा खुद-ब-खुद झरे हुए पत्तों को बुहारकर सड़क के एक किनारे पर जमा कर दे और कुदरत इस दौलत को बेजान मोटर गाड़ियों के पहियों तले रौंदने से बचा ले।
जहाँ तक सवाल पत्तों के झरने का है तो यह जानना भी रोचक है कि शहर की सड़कों के किनारे लगे पेड़ों से हर साल सैकडों नहीं, हजारों ट्रालियां भरकर सूखे पत्ते उठाये जाते हैं. यह बात और है कि इन पत्तों को बुहारकर एक तरफ ढेर लगाने वाले सफाई कर्मचारी कई बार इनमें आग लगाकर चलते बनते हैं. इससे शहर है धुंआ और प्रढूषण तो फ़ैल ही रहा है, सांस की बीमारियों से परेशान लोगों के लिए भारी दिक्कत का सबब बनता है. हालांकि सरकारी तौर पर सूखे पत्तों को जलाने पर पूरी पाबंदी है, लेकिन कानून को नहीं मानने वालों की अपनी एक जमात है. वैसे लोगों को पूरा यकीन है की सड़कों के किनारे सड़ जाने वाले इन पत्तों में इतनी ताकत है कि इनसे निकलने वाले ईंधन की आग भट्टों को जलाए दे रही है।
जानकारी यह भी है कि इन पत्तों से फायदा उठा लेने की सोच रखने वाले कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने कुछ साल पहले यही जानकारी और सुझाव दिया था कि इन पत्तों को इकट्ठा करके ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. सुना गया कि यह सुझाव नगर निगम के अफसरों के पास भी भेजा गया था, लेकिन पत्तों के ईंधन से निकलने वाली आग अफसरों के दिमाग को रोशन नहीं कर सकी. नतीजा, पत्ते सड़कों पर ही पड़े रहते हैं और अधिक से अधिक ट्रालियों में भरकर शहर की हद से भहर फिंकवा दिए जाते हैं. जानकारी यह है कि पत्तों को ऊर्जा में बदलने की फाइल नगर निगम कई साल पहले ही बंद करवा चुका है. पत्तों से निजात पाने के जुगाड़ में इन्हें जला देने का खामियाजा सफाई कर्मचारी मुअतली या हर्जाना भरने के तौर पर चुकाते हैं. तकनीकी जानकारी रखने वाले लोगों का कहना है कि इन पत्तों को ईंधन में बदल कर कई सरकारी दफ्तरों में ईंधन के लिए इस्तेमाल हो रही एलपीजी की खपत में भारी कमी की जा सकती है. यह बता दें कि जिन पत्तों को बेकार समझकर इसके प्रोपोजल को ठिकाने लगा दिया गया है, उन्ही पत्तों से ईंधन बनाने वाले प्लांट गुजरात में इतने अधिक हैं कि वह हर साल करीब तीस हज़ार टन छिलका-पत्तों से बना ईंधन पंजाब के भट्टों को सप्लाई करते हैं. पर्यावरण से जुड़े लोगों ने कुछ समय पहले गैर परम्परागत ऊर्जा विकास विभाग से इन पत्तों से निकलने वाली ऊर्जा की जांच कराई थी. इनकी 'हीट वैल्यू' 3942 पायी गयी थी, जिसका मतलब है कि यह पत्ते अच्छा ईंधन साबित हो सकते हैं।
खैर, शहर में फिर पतझड़ आया है. पत्तों के ढेर लगे हैं. पर सुना है कि लाट साहब के दफ्तर से हुक्म है कि इन सूखे पत्तों को जलाया न जाए, दफ्न किया जाए और वह भी उन्हीं पेड़ों के नीचे गड्ढा खोदकर जहाँ से यह गिरे हैं.... 'न कहीं जनाजा उठता, न कहीं मजार होता॥'!!

Tuesday, March 10, 2009

'चांदनी शब् देखने को बस खुदा रह जायेगा'


'शहर को बरबाद कर दिया उसने मुनीर, शहर को बरबाद मेरे नाम पर उसने किया'
शायर ने ऐसा तरक्की के नाम पर बर्बाद कर दिए गए पर्यावरण के बारे में ही कहा होगा. दशकों पहले शहर में सड़कों के किनारे पौधे रोपने और दशकों बाद सड़कें चौड़ी करने के लिए काटे जा रहे पेड़ों को देखकर शहर के पुराने बाशिंदों का दर्द इन्ही लाईनों से झलकता है.
लोग याद करते हैं की किस तरह शिवालिक की तलहटी में बस रहे एक नए शहर के इक्का-दुक्का सेक्टरों की गलियों में हवा की सर्गोशिओं के अलावा अगर कुछ सुनता था तो चिड़ियों की चहचाहट और कभी-कभार सड़क बनाने के लिए ले जाई जा रही मशीनरी का शोर. सेक्टर 'सतारां' तब भी ऐसा ही सुंदर था, लेकिन ग्लैमरस नहीं. कंक्रीट की बिल्डिंगस तो खड़ी हो रही थी, लेकिन आज की तरह ठूंठ नहीं लगती थी. चिड़िया के मुंह वाले फुवारे से पानी नहीं गिरता था, लेकिन शहर में जड़ें बसा रहे लोग जीवन में रवानगी ला रहे थे. उत्तरी सेक्टर बस रहे थे. प्रोजेक्ट कैपिटल के तहत बन रही सेक्टरियेट, हाईकोर्ट और विधान सभा के डिजाइनर भवनों के साथ-साथ सेक्टर 16 और 22 में छोटी ईंटों के मकानों के अलावा अगर कुछ था तो साफ हवा, पानी और ढेर सारा आकाश.
'तब शहर सपना सा लगता था. कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि भीड़ जैसी कोई चीज़ इस शहर में कभी हो सकेगी या प्रदूषण भी कोई मुद्दा होगा'- ऐसा याद करते हैं सेक्टर 21 में रहने वाले एचएस बेदी. और सोचते भी तो भला कैसे. सत्तर के दशक के चंडीगढ़ को याद करते हुए बेदी बताते हैं कि मध्यमार्ग से पार तो जैसे कोई रहता ही नहीं था. सोलह कमरे, आठ पालतू कुत्तों, चार नौकरों और दो बुजुर्गों कि रिहायश वाले बंगले. मध्यमार्ग के इस तरफ सेन्ट्रल सेक्टर बन चुके थे, लेकिन भीड़ नाम की कोई चीज़ अभी पैदा नहीं हुयी थी. सड़कों पर वाहन के नाम पर कुछेक लेम्ब्रेटा या प्रिया मॉडल के स्कूटर, एक-आध उल्टे दरवाजों वाली फिएट और रोडमास्टर मॉडल की इस्टेट ऑफिस की मटमैले रंग की सरकारी एम्बेसडर कार. इनके अलावा बाकी कुछ था तो साइकिलें, जिनके लिए बाकायदा हर सार्वजनिक स्थल पर लोहे के जंगले लगाकर स्टैंड बनाए गए थे. इनमें साईकिल का अगला पहिया फंसाकर ताला लगाया जाता था.
अमेरिका की एक टॉप कम्पनी में कंसल्टेंट मनीष सिंगला का बचपन ऐसे ही शहर में बीता है. वह अभी तक याद करते हैं की कैसे सेक्टर 22 अरोमा होटल के सामने बड़े दायरे का एक चौक हुआ करता था, जिसके सामने सैनिक रेस्ट हाउस की दीवार के सहारे पुराणी कॉमिक्स बेचने वाला बैठता था. दस पैसे लेकर पुरानी कॉमिक बुक्स देता था, वहीँ अरोमा चौक की घास पर बैठकर पढने के लिए। फिर दिन में उसी चौक के डिवाइडर को विकेट बना कर क्रिकेट खेलते थे, क्योंकि सुबह दस बजे से शाम पांच बजे के बीच उस चौक से गिनकर पचास वाहन भी नहीं गुजरते थे. मनीष को दुःख है कि तरक्की के नाम पर शहर की पुरानी यादों की बखिया उधेड़ने का काम सबसे पहले उसी चौक से शुरू हुआ. उसी को उखाड़कर शहर की पहली बड़ी ट्रैफिक लाइट लगाईं गयी थी और इन्हीं ट्रैफिक लाइटस को पार करने के लिए अब दिन में कई बार ट्रैफिक जाम होता है. आने वाले दिनों में अगर यहाँ कोई फ्लाईओवर बनाने की नौबत आन पड़े तो हैरत नहीं होनी चाहिए. फ्लाईओवर बनाकर आसमान को मुट्ठी भर में समेटने के प्रस्ताव तो कई आ चुके हैं और अब मेट्रो चलाने के लिए शायद शहर के बाशिंदों के पैरों तले की जमीन को भी खिसकाने की सोच के प्लान बन रहे हैं.
शहर के पुराने बाशिंदों से शहर में बढ़ रहे प्रदूषण के बारे में बात करते हैं तो वे एक बार तो जोर से हंसते हैं और फिर ठंडी सांस लेकर मरी सी आवाज़ में कहते हैं-'बर्बाद कर दित्ता इन्हां मोटर गड्डियां ने. इत्थे कदे धुआं ते है ही नहीं सी, शोर सुनन लाई मेन रोड ते आना पैंदा सी'. बसते शहर में मेनरोड की 'बैक' लगती कोठियां लेकर खुद को खुशनसीब मानते रहे लोगो से दुखी अब शायद कोई भी नहीं है. कारण, शहर के माई-बाप बनकर डेपुटेशन पर आने वाली अफसरशाही का नजरिया बाबुओं की सोच पर बनने वाली फाइलों से आगे नहीं जाता. बड़ी सड़कों पर ट्रैफिक कम करने के बाबुओं के आईडिया पर चलने वाले अफसरों ने शहर की भीतरी (वी 3), यहाँ तक की गलियों (वी 5 ) में भी बसें दौड़ाने की योजनायें बना रखी हैं. सुबह चार बजे प्रेशर हार्न बजाती सेक्टरों के बीच की सड़कों पर घूमती बसों के शोर और धुएँ की शिकायतें दिल्ली जैसे भीड़-भड़क्के वाले शहर से आनेवाले डेपुटेशन पर आने वाले अफसरों को unreasonable लगती हैं. पिछले पचास साल के दौरान चंडीगढ़ में आए बदलाव की बात करने पर सेक्टर 35 में रहने वाला ग्रोवेर परिवार भड़क उठता है. अगर आप शहर बसाने के पीछे कर्बुजिये की सोच को ताक पर रखकर सिर्फ सर छिपाने लायक फ्लैटस डिजाइन करने करने, चौक पर ट्रैफिक जाम से बचने के लिए चौक को ही हटा देने, आसपास के पेड़ों को काटकर स्लिप रोड्स बना देने और वाहनों की अनियंत्रित संख्या को ही तरक्की मानते हैं तो आने वाले पचास साल में शहर इतनी तरक्की कर चुका होगा कि यहाँ का माहौल किसी इंडस्ट्रियल कसबे से अच्छा नहीं होगा.
ग्रोवर परिवार ही नहीं, अधिकतर लोग मानते हैं कि 'हरियां झाडियाँ' (हरियाली) और 'चिट्टियाँ दाढियां' (अनुभवी बुजुर्ग) बढ़ने के बावजूद शहर का पर्यावरण खराब होता जा रहा है. पर्यावरण का मतलब बरसात की मात्रा समझने वाली सत्तर के दशक की सोच अगर नहीं बदली गयी तो आने वाले दशकों में शहर का हर चौक-चौराहा 'हीट पॉकेट' बन चुका होगा. साथ के दशक में चंडीगढ़ आन बसे एनवायरनमेंट सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष एसके शर्मा शहर के पर्यावरण के लिए सबसे बड़े खतरे वाहनों की तादाद को लेकर डरे हुए हैं. उनका डर सच्चा है. आज से चालीस साल पहले 1964 में शर्मा के पास स्कूटर था-शहर के कुल चार स्कूटरों में से एक. अब हर घर में चार वाहन है. शहर में करीब चार लाख दोपहिया वाहन हैं. इतने ही चार पहिया. आए दिन दो पहिया चालक सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं.
पुलिस के आंकडे कहते हैं पिछले साल करीब अस्सी लोग शहर में हुयी सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए. पौने तीन सौ ज़ख्मी हुए. "जब मैंने 1976 में पर्यावरण सोसाइटी बनायी तो लोग मुझपर हँसे की सोसाइटी के पास करने के लिए काम नहीं होगा. अब सोचता हूँ कि अभी से इतनी जरूरत है पर्यावरण के लिए काम करने की तो आने वाले वक़्त में यह शहर इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे संभालेगा" यह कहना है शर्मा का.
यह सच है कि जिस तरह शहर कि आबादी बढ़ रही है इस शहर को फैलने कि जगह नहीं रह गयी है, शहर कि सड़कों पर हवा के साथ सरगोशियाँ करते पेड़ बहुत दिनों तक दिखाई नहीं देने वाले. सड़कों पर बढ़ते वाहनों के दबाव के चलते साल-दर-साल सड़कों को चौड़ा करने कि मजबूरी यहाँ के अमलतास, कचनार, पलाश और गुलमोहर को अपनी लपेट में ले लेगी. इंडियन काउंसिल फॉर एन्विरोंमेंटल एजूकेशन के सेक्रेटरी विकास कोहली आने वाले दशकों में शहर के ऐसे रूप को सोचकर चिंतित हैं. उनका कहना है कि पर्यावरण की कीमत पर सही नहीं है. आखिर, लोगों को जिंदा रहने के लिए पर्यावरण चाहिए, फ्लैटस, पार्किंग स्थल और ट्रैफिक लाइटस नहीं. और आखिर में किसी शायर का यह डर कि-
'शहर सन्नाटों का बन जायेगी दुनिया इक दिन,
यह खराबा जिंदगी का बेसदा रह जायेगा.
क्या खबर है आपको इन एटमी जंगों के बाद,
चांदनी शब् देखने को बस खुदा रह जायेगा'.