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Tuesday, March 10, 2009

'चांदनी शब् देखने को बस खुदा रह जायेगा'


'शहर को बरबाद कर दिया उसने मुनीर, शहर को बरबाद मेरे नाम पर उसने किया'
शायर ने ऐसा तरक्की के नाम पर बर्बाद कर दिए गए पर्यावरण के बारे में ही कहा होगा. दशकों पहले शहर में सड़कों के किनारे पौधे रोपने और दशकों बाद सड़कें चौड़ी करने के लिए काटे जा रहे पेड़ों को देखकर शहर के पुराने बाशिंदों का दर्द इन्ही लाईनों से झलकता है.
लोग याद करते हैं की किस तरह शिवालिक की तलहटी में बस रहे एक नए शहर के इक्का-दुक्का सेक्टरों की गलियों में हवा की सर्गोशिओं के अलावा अगर कुछ सुनता था तो चिड़ियों की चहचाहट और कभी-कभार सड़क बनाने के लिए ले जाई जा रही मशीनरी का शोर. सेक्टर 'सतारां' तब भी ऐसा ही सुंदर था, लेकिन ग्लैमरस नहीं. कंक्रीट की बिल्डिंगस तो खड़ी हो रही थी, लेकिन आज की तरह ठूंठ नहीं लगती थी. चिड़िया के मुंह वाले फुवारे से पानी नहीं गिरता था, लेकिन शहर में जड़ें बसा रहे लोग जीवन में रवानगी ला रहे थे. उत्तरी सेक्टर बस रहे थे. प्रोजेक्ट कैपिटल के तहत बन रही सेक्टरियेट, हाईकोर्ट और विधान सभा के डिजाइनर भवनों के साथ-साथ सेक्टर 16 और 22 में छोटी ईंटों के मकानों के अलावा अगर कुछ था तो साफ हवा, पानी और ढेर सारा आकाश.
'तब शहर सपना सा लगता था. कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि भीड़ जैसी कोई चीज़ इस शहर में कभी हो सकेगी या प्रदूषण भी कोई मुद्दा होगा'- ऐसा याद करते हैं सेक्टर 21 में रहने वाले एचएस बेदी. और सोचते भी तो भला कैसे. सत्तर के दशक के चंडीगढ़ को याद करते हुए बेदी बताते हैं कि मध्यमार्ग से पार तो जैसे कोई रहता ही नहीं था. सोलह कमरे, आठ पालतू कुत्तों, चार नौकरों और दो बुजुर्गों कि रिहायश वाले बंगले. मध्यमार्ग के इस तरफ सेन्ट्रल सेक्टर बन चुके थे, लेकिन भीड़ नाम की कोई चीज़ अभी पैदा नहीं हुयी थी. सड़कों पर वाहन के नाम पर कुछेक लेम्ब्रेटा या प्रिया मॉडल के स्कूटर, एक-आध उल्टे दरवाजों वाली फिएट और रोडमास्टर मॉडल की इस्टेट ऑफिस की मटमैले रंग की सरकारी एम्बेसडर कार. इनके अलावा बाकी कुछ था तो साइकिलें, जिनके लिए बाकायदा हर सार्वजनिक स्थल पर लोहे के जंगले लगाकर स्टैंड बनाए गए थे. इनमें साईकिल का अगला पहिया फंसाकर ताला लगाया जाता था.
अमेरिका की एक टॉप कम्पनी में कंसल्टेंट मनीष सिंगला का बचपन ऐसे ही शहर में बीता है. वह अभी तक याद करते हैं की कैसे सेक्टर 22 अरोमा होटल के सामने बड़े दायरे का एक चौक हुआ करता था, जिसके सामने सैनिक रेस्ट हाउस की दीवार के सहारे पुराणी कॉमिक्स बेचने वाला बैठता था. दस पैसे लेकर पुरानी कॉमिक बुक्स देता था, वहीँ अरोमा चौक की घास पर बैठकर पढने के लिए। फिर दिन में उसी चौक के डिवाइडर को विकेट बना कर क्रिकेट खेलते थे, क्योंकि सुबह दस बजे से शाम पांच बजे के बीच उस चौक से गिनकर पचास वाहन भी नहीं गुजरते थे. मनीष को दुःख है कि तरक्की के नाम पर शहर की पुरानी यादों की बखिया उधेड़ने का काम सबसे पहले उसी चौक से शुरू हुआ. उसी को उखाड़कर शहर की पहली बड़ी ट्रैफिक लाइट लगाईं गयी थी और इन्हीं ट्रैफिक लाइटस को पार करने के लिए अब दिन में कई बार ट्रैफिक जाम होता है. आने वाले दिनों में अगर यहाँ कोई फ्लाईओवर बनाने की नौबत आन पड़े तो हैरत नहीं होनी चाहिए. फ्लाईओवर बनाकर आसमान को मुट्ठी भर में समेटने के प्रस्ताव तो कई आ चुके हैं और अब मेट्रो चलाने के लिए शायद शहर के बाशिंदों के पैरों तले की जमीन को भी खिसकाने की सोच के प्लान बन रहे हैं.
शहर के पुराने बाशिंदों से शहर में बढ़ रहे प्रदूषण के बारे में बात करते हैं तो वे एक बार तो जोर से हंसते हैं और फिर ठंडी सांस लेकर मरी सी आवाज़ में कहते हैं-'बर्बाद कर दित्ता इन्हां मोटर गड्डियां ने. इत्थे कदे धुआं ते है ही नहीं सी, शोर सुनन लाई मेन रोड ते आना पैंदा सी'. बसते शहर में मेनरोड की 'बैक' लगती कोठियां लेकर खुद को खुशनसीब मानते रहे लोगो से दुखी अब शायद कोई भी नहीं है. कारण, शहर के माई-बाप बनकर डेपुटेशन पर आने वाली अफसरशाही का नजरिया बाबुओं की सोच पर बनने वाली फाइलों से आगे नहीं जाता. बड़ी सड़कों पर ट्रैफिक कम करने के बाबुओं के आईडिया पर चलने वाले अफसरों ने शहर की भीतरी (वी 3), यहाँ तक की गलियों (वी 5 ) में भी बसें दौड़ाने की योजनायें बना रखी हैं. सुबह चार बजे प्रेशर हार्न बजाती सेक्टरों के बीच की सड़कों पर घूमती बसों के शोर और धुएँ की शिकायतें दिल्ली जैसे भीड़-भड़क्के वाले शहर से आनेवाले डेपुटेशन पर आने वाले अफसरों को unreasonable लगती हैं. पिछले पचास साल के दौरान चंडीगढ़ में आए बदलाव की बात करने पर सेक्टर 35 में रहने वाला ग्रोवेर परिवार भड़क उठता है. अगर आप शहर बसाने के पीछे कर्बुजिये की सोच को ताक पर रखकर सिर्फ सर छिपाने लायक फ्लैटस डिजाइन करने करने, चौक पर ट्रैफिक जाम से बचने के लिए चौक को ही हटा देने, आसपास के पेड़ों को काटकर स्लिप रोड्स बना देने और वाहनों की अनियंत्रित संख्या को ही तरक्की मानते हैं तो आने वाले पचास साल में शहर इतनी तरक्की कर चुका होगा कि यहाँ का माहौल किसी इंडस्ट्रियल कसबे से अच्छा नहीं होगा.
ग्रोवर परिवार ही नहीं, अधिकतर लोग मानते हैं कि 'हरियां झाडियाँ' (हरियाली) और 'चिट्टियाँ दाढियां' (अनुभवी बुजुर्ग) बढ़ने के बावजूद शहर का पर्यावरण खराब होता जा रहा है. पर्यावरण का मतलब बरसात की मात्रा समझने वाली सत्तर के दशक की सोच अगर नहीं बदली गयी तो आने वाले दशकों में शहर का हर चौक-चौराहा 'हीट पॉकेट' बन चुका होगा. साथ के दशक में चंडीगढ़ आन बसे एनवायरनमेंट सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष एसके शर्मा शहर के पर्यावरण के लिए सबसे बड़े खतरे वाहनों की तादाद को लेकर डरे हुए हैं. उनका डर सच्चा है. आज से चालीस साल पहले 1964 में शर्मा के पास स्कूटर था-शहर के कुल चार स्कूटरों में से एक. अब हर घर में चार वाहन है. शहर में करीब चार लाख दोपहिया वाहन हैं. इतने ही चार पहिया. आए दिन दो पहिया चालक सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं.
पुलिस के आंकडे कहते हैं पिछले साल करीब अस्सी लोग शहर में हुयी सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए. पौने तीन सौ ज़ख्मी हुए. "जब मैंने 1976 में पर्यावरण सोसाइटी बनायी तो लोग मुझपर हँसे की सोसाइटी के पास करने के लिए काम नहीं होगा. अब सोचता हूँ कि अभी से इतनी जरूरत है पर्यावरण के लिए काम करने की तो आने वाले वक़्त में यह शहर इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे संभालेगा" यह कहना है शर्मा का.
यह सच है कि जिस तरह शहर कि आबादी बढ़ रही है इस शहर को फैलने कि जगह नहीं रह गयी है, शहर कि सड़कों पर हवा के साथ सरगोशियाँ करते पेड़ बहुत दिनों तक दिखाई नहीं देने वाले. सड़कों पर बढ़ते वाहनों के दबाव के चलते साल-दर-साल सड़कों को चौड़ा करने कि मजबूरी यहाँ के अमलतास, कचनार, पलाश और गुलमोहर को अपनी लपेट में ले लेगी. इंडियन काउंसिल फॉर एन्विरोंमेंटल एजूकेशन के सेक्रेटरी विकास कोहली आने वाले दशकों में शहर के ऐसे रूप को सोचकर चिंतित हैं. उनका कहना है कि पर्यावरण की कीमत पर सही नहीं है. आखिर, लोगों को जिंदा रहने के लिए पर्यावरण चाहिए, फ्लैटस, पार्किंग स्थल और ट्रैफिक लाइटस नहीं. और आखिर में किसी शायर का यह डर कि-
'शहर सन्नाटों का बन जायेगी दुनिया इक दिन,
यह खराबा जिंदगी का बेसदा रह जायेगा.
क्या खबर है आपको इन एटमी जंगों के बाद,
चांदनी शब् देखने को बस खुदा रह जायेगा'.

2 comments:

R D said...

एंडी ह भाई .......बताया भी नि, टेडी खीर ह
लाग्या रहिये मेरे भाई .........R D
liveharyana.blogspot.com

Unknown said...

Dear Dr. Ravi,

Lovely photographs, who took them?

Lets meet if you have the inclination dear...

Karan Deep Singh
9815145670