


बिग सिनेमा मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाने से पहले ही मेरे बेटे ने दो शर्तें रख दी. पहली यह कि डायमंड कटेगरी की टिकट लेनी पड़ेगी, यानी डेढ़ सौ रुपये वाली. और दूसरी यह कि फिल्म शुरू होने से पहले पॉपकार्न और इंटरवल में 'कॉम्बो-मील' दिलाना पड़ेगा. चमचमाते मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने वाली इस जेनेरेशन ने सेक्टर २२ में किरण सिनेमा के बारे में यह टिप्पणी की थी कि इतने छोटे हाल से अच्छा तो घर में लगा 42 इंच का एलसीडी ही है.
मुझे याद आया कि चंडीगढ़ में आने के पहले या दूसरे साल स्कूल की ओर से बच्चों की एक फिल्म दिखाने लेकर जाया गया था सेक्टर 22 के किरण सिनेमा में. फिल्म का नाम तो मुझे याद भी नहीं है, शायद किसी बच्चे को पता ही नहीं था. तीसरी क्लास की बात है या चौथी की. हाँ इतना याद है कि सेक्टर 21 के स्कूल से पैदल ही लाइन बना कर बच्चों को सिनेमा हल तक ले गए थे, इस सारे मामले में हंसने की बात यह थी कि हमारी क्लास टीचर का नाम भी किरण था ओर हम बच्चे उस को लेकर खुसरपुसर करते हुए हंस रहे थे. तब हमें नहीं पता था कि किरण सिनेमा शहर का पहला सिनेमा हाल था ओर कुल जमा चार सौ सीटों वाले इस सिनेमा हाल में फिल्म देखने के लिए लम्बी लम्बी लाईने लगती रही है. उसके बाद मैंने शायद दूसरी ओर आखरी फिल्म चांदनी देखी थी.
चंडीगढ़ में किरण के बाद बना था सेक्टर 17 का जगत सिनेमा जिसे अब तोड़कर एक नया मल्टीप्लेक्स बना दिया गया है. ओर सुना है इसके बाद सेक्टर 17 में ही बने नीलम सिनेमा हाल का भी येही हाल होने वाला है. सुपर-डुपर फिल्म 'शोले' जगत में ही लगी थी. जगत सिनेमा ऐसा था जिसमे सीढ़ियों पर लाल रंग का कारपेट लगा हुआ था ओर बड़े बड़े शीशे लगे थे. जगत सिनेमा एक वक़्त में अंग्रेजी फिल्मों के लिए मशहूर हो गया था. शायद 1997 के दिनों में. हमारे कोलेज के नए-नए दिन थे. अनुराग अब्लाश के साथ एक दो अंग्रेजी फिल्म भी देखी, साढ़े चार रुपये वाली बालकोनी में. उप्पर स्टाल तो शायद अढाई रूपये में ही मिल जाती थी. लोवेर स्टाल भी था डेढ़ रुपये में, लेकिन वो हमारे स्टेटस से थोडा नीचे था. तब इंटरवल में दस रुपये में 'गोल्ड स्पोट' ठंडा और पोपकोर्न का 'कॉम्बो' मिल जाया करता था. या बहुत हुआ तो अखबार में लिपटा हुआ ब्रेड-पकोड़ा.
इसके साथ लगता ही एक और सिनेमा हाल था 'केसी' . केसी की बिल्डिंग गोल थी. देखने में ही बड़ी रोचक थी. अब तो नहीं है. पता नहीं क्या बनेगा वहां. मैं जब सातवी या आठवी में था तब शायद 'बतरा' बना. तब तक वहां तक शहर बसा नहीं था. इसलिए वहां भूत होने की बाते भी सुनी थी, लेकिन फिर भी एक बार मैं और तिरलोक रात वाला शो देखने गए थे, फिल्म थी रामसे भाईओं की 'दरवाजा'. साड़ी बालकोनी में हम तीन जने थे,. इंटरवल में ही भाग आये डर के मारे .
उसके बाद मनीमाजरा वाला ढिल्लों सिनेमा भी बना और सेक्टर 32 में 'गन्दी' फिल्मों वाला निर्माण भी. एसडी कोलेज वालों की वहां काफी चलती थी टिकट लेने में. अब तो पिकाडली भी मल्टीप्लेक्स बन गया है, जगत और ढिल्लों भी. जीरकपुर में बिगसिनेमा है, इधर सेंतरा माल है और डीटी सिनेमा. आज कल के बच्चों के लिए कई तरह के कॉम्बो मील हैं और सबसे बड़ी बात, टिकट के लिए लाइन में लगने की जरूरत नहीं. ऑनलाइन बुकिंग हैं न.
फिर वही सवाल-पापा, आप के ज़माने में 3 डी मूवी हुआ करती थी क्या? मैंने याद किया-हाँ एक आई तो थी ऐसी फिल्म, क्या नाम था---हाँ, छोटा चेतन.