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Thursday, March 8, 2012

ये जो थोड़े से हैं पैसे, खर्च तुम पर करूं कैसे...!!



कल सेक्टर 17 के गलियारों में घूमते हुए इंडियन कॉफ़ी हाउस के सामने से गुजरते हुए एक फिल्टर कॉफ़ी की तलब हुई. फिर दूसरे ही पल मेरे आठ साल के बेटे ने यह कहकर भीतर जाने से मना कर दिया कि वो 'ढाबे' में नहीं जाता. यह आज की बात है, बीते कल की सोचता हूँ तो याद आता है कि कॉलेज के दिनों में येही कॉफ़ी हाउस हमारी हैसियत के हिसाब से बेहतरीन जगह हुआ करती थी. मसाला डोसा, साम्बर वडा और कॉफ़ी. सस्ते का जुगाड़ था.
वैसे तो 11 वाले सरकारी कोलेज की कंटीन भी कम रोमांटिक नहीं थी. पहले तो हमारी कंटीन कोलेज के बीचो -बीच हुआ करती थी, लेकिन बाद में न्यू ब्लॉक के पीछे चली गयी, जिम्नेजियम के पास. वहां से सेक्टर 11 की मार्केट की और से चोर-रास्ता भी दिखता था जहाँ से खिसककर अनुराग अब्लाश जैसे कई दोस्त कोने में बनी पनवारी की दूकान से सिगरेट खरीदने जाया करते थे और वहीँ से सिगरेट सुलगाकर आते थे. होस्टल वाले 11 की रेहड़ी मार्केट में परोंठे खाने जाते थे. वहीँ से ऊंची -ऊंची घास वाला क्रिकेट ग्राउंड भी दीखता था, जहाँ कुछ सिगरेट पीने वालों के साथ नीम्बू पानी पीने वालों की महफ़िलें भी लगती थी. कॉलेज सिर्फ लड़कों के लिए था इसलिए बिना किसी सेंसरशिप के दूर से ही गालियाँ देकर रेहड़ी वाले को नीम्बू-पानी के 'चार और ग्लास' भेज देने के आर्डर भी दे दिए जाते थे.
अब तो लड़कियां भी पढ़ती हैं उस कोलेज में और नाम भी गवर्नमेंट कोलेज फार बोएज था. बदलकर पोस्ट ग्रेजुएट कोलेज कर दिया गया है. कंटीन में वही टिपिकल लोहे की फोल्डिंग कुर्सियां और टेबल थी. चाय भी सस्ती थी और समोसा भी. हरमन सिद्धू वहीँ मिला करता था कभी कभी. लेकिन भीतर के कवि टाइप मन को वो माहौल नहीं मिल रहा था जो 'बुद्धिजीवी' टाइप लोगों का हुआ करता था उन दिनों. वो माहौल इंडियन कॉफ़ी हॉउस में ही था. नीम- अँधेरे कोने और सुस्त पंखे और उनींदा सा माहौल. और सबसे अच्छी बात ये की घंटों तक बैठे रहने पर भी कोई यह पूछने नहीं आता था कि कुछ और चाहिए या नहीं.
वैसे उन दिनों सेक्टर 17 में ही एक और रेस्तरां 'क्वालिटी' भी था. वहां दरवाजे पर दरबान होता था जो बाकायदा सलाम ठोकता था. वहां जाने का मन तो बहुत था लेकिन उतने पैसे का जुगाड़ करने का मतलब था कि पूरे महीने की पॉकेट मनी एक बार में ही उड़ा देना. कॉलेज की तीन महीने की फीस ही एक सौ बीस रुपए थी तो पॉकेट मनी की रकम का तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है. साईकिल से कॉलेज आते जाते थे. बाद में एक दोस्त राजीव अगरवाल के साथ वहां जाने का मौका भी मिला, लेकिन आर्डर करते वक़्त रेट लिस्ट देखने की मजबूरी में कॉफ़ी का स्वाद ख़राब हो गया. आर्डर रीपीट करने की तो गुंजाइश ही नहीं थी. क्वालिटी अब बंद हो गया है. यहीं हुआ करता था नीलम सिनेमा से बाटा वाली साइड में दो -तीन शोरूम छोड़कर ही.
बाद में पॉकेट मनी के हिसाब से सेक्टर 22 का साईं स्वीट्स एक तरह से पक्का ठिकाना बना. हालांकि, बचपन में तो मेरा घर साईं स्वीट्स के बिलकुल सामने की सड़क पार करके ही सेक्टर 21 में हुआ करता था, रोड भी सिंगल ही थी. ट्रेफिक ना के बराबर. लेकिन यहाँ आने का सिलसिला बहुत बाद में शुरू हो सका. आज भी है. वहां का माहौल और चाय आज भी मनपसंद हैं. हर तरफ साईं बाब की तस्वीरें, वही सालों पुराना फर्नीचर और वही लोग. गर्मियों के दिनों में कूलर ही ठंडक देता है और उमस भी, लेकिन एसी नहीं लगे आज तक. इसलिए सर्दियों में मुझे यह जगह ज्यादा पसंद आने लगी है.
नौकरी के शुरुआती दिनों में जेब में इतने ही पैसे बचते थे कि वहां समोसा और चाय का मजा आराम से ले सकते थे. आज भी पॉकेट मनी का हिसाब रखने वालों के लिए वो एक बेहतरीन जगह है.
पॉकेट मनी की बात से याद आया कि पिछले दिनों मेरे बेटे ने मुझसे उसकी पॉकेट मनी देने को कहा . दूसरी क्लास में पढने वाले बच्चे के हिसाब से पॉकेट मनी की जरुरत मैं नहीं समझता और बोला -'बेटे, और किसी बच्चे को पॉकेट मनी मिलती है कोई?" बेटे का जवाब -'हाँ , नोबिता को....!!!"

2 comments:

Vikram said...

great... bina bhid vale chandigarh ki yaad dila di sir...

Anonymous said...

रवि भाई ! आज आपका ब्लॉग पढ़ा। बहुत खूब भाई। मुद्द्त बाद अच्छा और सलीके के साथ लिखा गया पढ़ने को मिला। शुक्रिया।
मुकुंद