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Wednesday, October 7, 2009

मेरी आवाज़ ही पहचान है...गर याद रहे..!!



येही आवाज़ थी जो सत्तर के दशक के हम बच्चों को घरों से बाहर खींच लाती थी. गर्मी की छुटियों में जब धुप में बाहर न निकलने की सख्त हिदायत होती थी और मैं घर की खिड़की से लगा बैठा रहता था इस उम्मीद में कि पास में रहने वाले मनीष सिंगला, नीरज शर्मा, केनेथ डी'सूज़ा या लखन सिंह में से कोई खेलने के बुलाने आ ही जाये. तभी कहीं से यह आवाज आती थी और घर से बाहर निकलने का बहाना मिल ही जाता था. 'ला...लाला लाला लाला, मेरे अंगने में..' लावारिस फिल्म के इस गाने की पहली लाइन सुनते ही गली में रहने वाले सभी बच्चों को सिग्नल मिल जाता कि 'बाहर निकलने और खेलने की स्कीम बनाने का बहाना मिल गया.
ये आवाज़ थी बाईस्कोप की. दूर गली के मोड़ पर उसके भोंपू से गाने सुनते ही बीस पैसे की मांग शुरू हो जाती. असल में वह बाईस्कोप पर फोटो वाली फिल्म दिखाने के तो दस पैसे ही लेता था पर कभी-कभार किसी दोस्त के लिए 'एडजस्टमेंट' करने के चक्कर में 'दस्सी' ज्यादा रखनी पड़ती थी.
चंडीगढ़ जैसे बसते हुए शहर में उन दिनों मनोरजन के साधन बहुत नहीं थे. मनोरंजन के नाम पर लोग सुखना झील या रोज़ गार्डेन में घूमते थे या बहुत हुआ तो सेक्टर 17 के नीलम, जगत या 'केसी' सिनेमा में 'त्रिशूल', 'मुक्कदर का सिकंदर' या 'कुर्बानी' जैसी फिल्म देखने के लिए टिकेट मिल जाने की किस्मत आजमाने चले जाते.
रही बात बच्चों की तो, स्कूल के बाद का दिन तो शरारतों के लिए ही कम पड़ता था. हाँ, गर्मी की छुटियों में दिन काटना समस्या थी. उन दिनों टेलीविजन के प्रोग्राम के नाम पर भी शाम को चित्रहार और रविवार की सुबह 'स्टारट्रेक' ही आता था. दिन में घर से बाहर निकलकर कंचे खेले जा सकते थे, लेकिन उसके लिए इजाज़त लेने के लिए कहते ही एक 'स्टेनडर्ड' जवाब सुनना पड़ता था कि 'कोई और बच्चा नज़र आ रहा है बाहर?' ऐसे में बाईस्कोप वाले की आवाज़ बड़ी राहत देती थी की इस बहाने सब बच्चे बाहर आ जायेंगे और स्कीम बना लेंगे कि आधे घंटे बाद बारी-बारी से सभी के घर जाकर गुजारिश करनी है कि-'आंटी, इसे भेज दो खेलने..'
लिहाजा, बाईस्कोप से बचपन का जो नाता जुड़ा उसे मैं या उन दिनों मेरी उम्र के बच्चे ही महसूस कर सकते हैं. वक़्त के साथ शहर बदला, शहर का जियोग्राफिया, शहर के बाशिंदे और उनकी जरूरतें. शीशे के कमरे वाले दफ्तर हैं जहाँ से बाहर की आवाजें मुज तक नहीं पहुँचती. लैपटॉप पर काम करते हुए वर्ल्डस्पेस रेडियो पर में 'कुर्बानी' फिल्म का 'नसीब इंसान का चाहत से संवरता है..'सुनते हुए अचानक मैंने बाहर देखा तो यकीन नहीं हुआ, एक बाईस्कोप वाला सामने के पेड़ के नीचे खडा था, अब इसे कहाँ से मेरी याद आ गयी तीस साल बाद..!!!
मैं फ्लेशबैक में चला गया..गर्म दोपहरियों में वो सुनसान गलियों में दौड़ते आते बच्चों का एक 'सेपिया कलर' की कुछ सेकंड की फिल्म. भागते बच्चे कचनार के पेड़ के नीचे खड़े बाईस्कोप वाले के इर्द-गिर्द जमा हैं, कुछ अपनी बारी के इंतज़ार में. कुछ बारी पक्की करने के लिए हथेली में 'दस्सी' का सिक्का पहले ही बाईस्कोप वाले को देने के लिए उछलते हुए..और कुछ 'अडजस्टमेंट' करते हुए बारी-बारी से बाईस्कोप के भीतर झांकते हुए..!!
..कहीं यह बाईस्कोप वाला हमें तो नहीं ढूंढ रहा,?? मनीष, नीरज, केनेथ डी' सूज़ा...जल्दी आओ, वो आ गया है..!! मनीष न्यूयार्क में, नीरज होंडा मोटर्स का जीएम्, केनेथ मेलबोर्न में...!!! तभी मोबाईल पर घर से फोन- पापा, मैं बाहर खेलने जाऊं??' और मेरा जवाब-'बेटा, और कोई बच्चा नज़र आ रहा है बाहर?'''

1 comment:

डॉ .अनुराग said...

वो दस पैसे की बाइस्कोप आज की थ्री डी फिल्मो से भी बेहतर थी ना....हमें तो कंचे वाली बोतल भी याद है ..जो जोर की आवाज करके खुलती थी ..