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Saturday, July 23, 2011

बीती हुई ये घड़ियाँ फिर से ना गुजर जाएँ....




मेरे सात साल के बेटे ने आकर कहा-पापा आपके पास चालीस रूपये हैं? मैंने कहा-हाँ, तो उसका जवाब आया कि -फिर टाटा स्काई पर 'एक्टिव गेम्स' का पैक क्यों नहीं लगवा देते? मैं उसकी इस बात को पहले भी कई बार अनसुना कर चुका हूँ, क्योंकि डोरेमोन, मिस्टर बीन, बेन-टेन और ओगी एंड द कोक्रेच देखने में ही हर रोज़ तीन घंटे तक टीवी के आगे बैठे रहने से उसकी आई-साईट पर असर पड़ने के डर से मैं अन्दर ही अन्दर डरा रहता हूँ. और ये टाटा स्काई वाले भी बच्चों के लिए ही कम से कम पांच चैनल चला रहे हैं. पोगो, निक्क, डिस्नी, कार्टून नेटवर्क और पता नहीं कौन से.
मुझे याद आया उसकी उम्र में मेरे जैसे बच्चों के लिए कोई भी प्रोग्राम नहीं था सिवाय एक के. शनिवार की शाम पांच बजे जालंधर दूरदर्शन से एक कार्टून शो आता था 'जिम्मी एंड द मैजिक टॉर्च'. पर उसे देखने में यह दिक्कत थी कि जालंधर दूरदर्शन के सिग्नल मनमर्जी के मालिक थे. सिग्नल आया तो आया नहीं आया तो नहीं. शहर में गिनती के टेलीविज़न थे. 1982 में हुए एशिआड खेलों के बाद ही टेलिविज़न का दौर आया था. तब हमारे घर में टेलिविज़न नहीं था. मनीष के घर पर था, लेकिन उसे टेलिविज़न देखने का कोई ख़ास शौक़ नहीं था. टेलिविज़न देखने की बजाय वह फैंटम की कोमिक्स की अदला-बदली करने में लगा रहता. एक दो बार उसके घर में जिम्मी वाला शो देखा भी, पर उसकी गैर-मौजूदगी में अजनबी से बन कर बैठना पड़ा.
उन दिनों टेलिविज़न वालों का अपना अलग रुतबा था. उनकी दोस्ती थी क्योंकि सिग्नल नहीं आने के सब के दुख तो सांझे थे ही, टेलिविज़न के एंटेना के तार भी. उन दिनों टेलिविज़न का एंटेना करीब बीस फुट ऊँचा लगता था, यानी एंटेना अपने घर की छत पर और तारें पड़ोसियों की छतों के जंगलों से बंधी होती थी. इसलिए अच्छे पडोसी बने रहना भी मजबूरी थी. सिग्नल नहीं आने का 'कोमन डिस्कशन' था और वीएचऍफ़ से यूएचऍफ़ बूस्टर लगवाने की सलाहों का दौर. फिर टेलिविज़न खरीदने की योजना बना रहे पडोसी को 'क्राउन', 'टेक्सला', या लकड़ी के दरवाजे वाला 'ईसी टीवी' की खूबियाँ और कमियां बताने का दौर और यह भी कि टीवी खरीदने जाओ तो दुकानदार से पहले ही खोल लेना की आगे लगने वाली रंगीन स्क्रीन साथ में फ्री लेंगे.
एक और नज़ारा था जो पहले बुधवार की शाम, फिर, वीरवर की शाम और फिर रविवार की सुबह देखने को मिलता था और वह था एंटेना की दिशा बदलने का कार्यक्रम. असल में उन्ही दिनों कसौली में एक लो फ्रिक्वेंसी का ट्रांसमीटर शुरू हो गया था जो दिल्ली दूरदर्शन के प्रोग्राम रिले करता था. बुधवार की शाम जालंधर दूरदर्शन से चित्रहार आता था तो वीरवार को दिल्ली से फिल्म. उसके बाद रात को 'बुनियाद' और रविवार की सुबह 'स्टार-ट्रेक' जैसे प्रोग्राम. कुल मिलाकर हर टेलिविज़न वाले घर में रोज़ शाम को लगभग एक जैसा सीन होता था, एक मेम्बर छत पर चढ़कर एंटेना की दिशा जालंधर से बदलकर कसौली की और करता और दूसरा नीचे टेलिविज़न के आगे खड़ा होकर चिल्ला-चिल्लाकर "आ गया, नहीं, हाँ, हाँ आ गया, थोडा और घुमा" जैसे सन्देश प्रसारित कर रहा होता. जब तक हमारे घर में टेलिविज़न नहीं आया था, तब तक मैंने भी एक-आध बार हमारे पडोसी मोंटी गिल और पहली मंजिल पर रहने वाली मनीषा गुप्ता के बैंक मैनेजर पापा की मदद की थी. मनीषा को भी चित्रहार देखने का काफी शौक़ था और उसके चलते उसने कई बार मेरे सामने ही उसके पापा से डांट भी खाई, लेकिन सुबह स्कूल जाते समय उसने जबरदस्ती टीवी बंद कर दिए जाने के लिए सॉरी भी बोला. मैंने कहा-कोई बात नहीं. मेरे घर में टीवी आने के बाद मनीषा से हफ्ते में दो बार सॉरी सुनने के मौके भी जाते रहे.
ब्लैक एंड व्हाईट टीवी का ज़माना कब बीता, पता नहीं चला, मेरे घर में कब ब्लैक एंड व्हाईट 'क्राउन' से कलर टीवी 'अकाई' और फिर 'एलजी' आ गया, पता ही नहीं चला. पिछले दिनों सेक्टर 22 में डिस्पेंसरी के सामने उस कोने वाले घर की छत पर अभी तक भी बीस फुट के एंटेना के साथ डिश भी लगी देखी तो ध्यान दिया कि वहां से कसौली की पहाड़ियाँ साफ़ दिखती हैं. हाँ डिश की दिशा जरुर दिल्ली की और हो गयी है.
घर आकर बताया कि शहर में अभी तक भी ब्लैक एंड व्हाईट टीवी के एंटेना लगे हुए हैं तो बेटे ने पूछा-पापा, आपके ज़माने में टीवी लकड़ी के बने होते थे? मैंने कहा-हाँ. अगला सवाल-तो क्या रिमोट भी लकड़ी के थे?

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